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'दखल नहीं करनी है,' ऐसा निश्चय करना भी दखल है। इस प्रकार से दखल दखल को निकालती है।
अगर चार डिश आईस्क्रीम ठोक जाए तो प्रज्ञा उसे चेतावनी देती है लेकिन फिर भी वह खा ही जाता है। वह कौन खिलाता है? वह चारित्र मोह है। चारित्र मोह के ज्ञाता-दृष्टा रहने से वह विलय हो जाता है। जागृति नहीं रही, निश्चय नहीं किया तो चारित्र मोह बढ़ जाता है ! ज्ञाता-दृष्टा रहे तो डखोडखल (दखलंदाजी) बंद हो जाती है!
मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार सभी दखलवाले हैं। प्रज्ञा चेतावनी देती है लेकिन अगर उसका नहीं माने तो फिर वह बंद हो जाती है। उसके प्रति सिन्सियर रहे तो वह सभी प्रकार से सावधान करती है।
'हमें' दखल करने की आदत है, उसमें 'हम' कौन हैं? 'हम' दो प्रकार से रहे हुए हैं। निश्चय से आत्मा की तरफ हैं। जितना ‘देखा' उतना छूट गया और जितना नहीं देखा' तो उतना व्यवहार से रहा।
जलेबी सामने आए तो वह छूटने के लिए ही आई है लेकिन 'मुझे बहुत भाती है' ऐसा कहा कि कर दी दखल?
अतः इसमें 'हम' अर्थात् कौन? अहंकार। देह और आत्मा की एकता किसने मानी है? अहंकार ने।
ज्ञान मिलने के बाद चार्ज करनेवाला अहंकार फ्रेक्चर हो जाता है। उसके बाद डिस्चार्ज अहंकार रहता है, फिर इट हेपन्स कहलाता है। जब तक चार्ज अहंकार है, तब तक ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि अहंकार न जाने क्या पागलपन करे?
डिस्चार्ज अहंकार के भी खत्म हो जाने के बाद सबकुछ सहज रूप से होता है, जैसे भूख कैसे सहज रूप से लगती है!
व्यवहार का असर हो जाए लेकिन वह पकड़े नहीं, तब वह शुद्ध कहलाता है। 'शुद्ध अर्थात् सहज!'
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