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है। सिनेमा चले तभी देखनेवाले की क़ीमत है और अगर सिनेमा बंद हो
तो?
चरणविधि करते समय अंदर लिंक टूट जाती है, फिर ऊँची आवाज़ में बोलने पर वापस शुरू हो जाती है। अंदर आत्मा को तो यह भी पता चलता है कि लिंक टूट गई और चल रही है, वह भी पता चलता है! फिल्म ही है। ज्ञान कच्चा पड़ जाए तो उसे कौन जानता है? वही मूल आत्मा है। अतः ज्ञाता-दृष्टा पद का अनुभव निरंतर होता ही है।
यह अक्रम विज्ञान है ही ऐसा कि जहाँ पर विभाव उत्पन्न ही नहीं होता! कुछ भी स्पर्श नहीं करता और बाधा भी नहीं डालता। पुद्गल का ज़ोर कितना रहा अब? वह सारा टेम्परेरी है और हम परमानेन्ट हैं!
जो स्व को स्व जाने, वह मुक्त है और जो अन्य को अन्य जाने व स्व को स्व जाने, वह महामुक्त! जब अन्य को अन्य जाने, उस समय अगर मन-वचन-काया का योग कंपायमान नहीं होता तो वह स्व को स्व जानता है और अगर कंपायमान हो जाए तो स्व को स्व जाना है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
ज्ञाता-ज्ञेय दोनों एक हो ही नहीं सकते, दोनों अलग ही हैं। ज्ञेय के आधार पर ज्ञाता है। मन फिल्म बताता है और हम उसके ज्ञाता। फिल्म खत्म हो जाए, तो फुल गवर्नमेन्ट!
जो खुद खुद का जानकार रहे, उसे दूसरे जानकार की ज़रूरत नहीं
है।
ज्ञाता और ज्ञायक में क्या फर्क है? जब मात्र जानने का ही कार्य करे, तब ज्ञायक कहलाता है। जब सत्ता में रहे, तब ज्ञायक।
ज्ञायक भाव में आना, वही उपयोग है। अन्य कुछ नहीं। महात्माओं को दादाश्री ने ज्ञायक भाव में रख दिया है। जितने समय तक ज्ञायक भाव में आया उतने समय तक केवलज्ञान के अंश प्राप्त होते हैं। उससे आधि, व्याधि और उपाधि (बाहर से आनेवाला दुःख) में भी समाधि रहती है।
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