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समर्पण
अनंत काल से ढूँढ रहा था 'मैं' आत्मा का प्रकाश; 'मैं' की खोज न फली, रहा इसलिए उदास!
मूल दृष्टि खुली, जगमग देखा 'स्व' स्वरूप;
'द्रव्य कर्म' के चश्मे भेद के, गया 'भावकर्म' का मूल! 'नोकर्म' में पहचाना प्रकृति को, पाया प्रकृति का पार; पुरुषार्थ में पाई प्रज्ञा, दूर हुआ अंधकार!
'एक पुद्गल' देखा खुद का, दिखी दशा 'वीर'!
'ज्ञायक' स्वभाव रमणता, 'सहज' आत्मा व शरीर! 'प्रकृति' निहार चुके तब हुआ अंत में परमात्मा ! 'ज्ञाता' का ज्ञाता जो सदा, वह केवल ज्ञानस्वरूपात्मा!
अहो अहो दादा ने दिया, ग़ज़ब का अक्रम विज्ञान !
न किसी शास्त्र या ज्ञानी ने, खोला ऐसा विज्ञान ! युगों-युगों तक महकेंगे, दादा अध्यात्म क्षेत्र में! न भूतो न भविष्यति, नहीं दिखेगा कोई इस नेत्र से!
क्या कहूँ जो दिया तूने मुझे, शब्द भी शरमा जाएँ!
मेरे अहो अहो भाव पढ़, हे अंतरयामी अरे! आप जिसमें लगे रहे, अंतिम श्वास तक इस जीवन! उसी के लिए आप्तवाणी तेरह, जग चरणों में समर्पण!