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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
रहता है। जब ज्ञाता-दृष्टा भाव में रहता हूँ तब उस समय मैं कुछ अलग ही चीज़ हूँ, ऐसा अनुभव होता है और ठंडक महसूस होती है।
दादाश्री : ऐसा तो लगेगा ही न! इसकी तो बात ही अलग है, ऐसा लगता है और तब हमें ठंडक बहुत महसूस होती है। वह तो केवलज्ञान की ठंडक कहलाती है। कोई-कोई महात्मा तो केवलज्ञान की ठंडक अनुभव कर सकता है। अपने कई महात्माओं को तो कई बार अंदर ऐसे-ऐसे क्षण आते हैं कि तब ऐसा भी बोलते हैं कि 'मैं केवलज्ञान स्वरूप हैं। बोल सकते हैं, क्योंकि किसी-किसी समय केवलज्ञान स्वरूप में आ जाता है व्यक्ति। एक-एक अंश करके भाग उत्पन्न हुआ है। अब जैसे-जैसे अंदर की उधारी चुकता होगी और बैंक से जितने ओवरड्राफ्ट लिए हैं, जैसे-जैसे वे सब चुकता होते जाएँगे, वैसे-वैसे यह सब समझ में आता जाएगा।
संपूर्ण ज्ञाता-दृष्टा तो हो गए हैं सभी, लेकिन निरंतर ज्ञाता-दृष्टा रह पाएँ तो केवलज्ञानी। निरंतर रहना चाहिए।
वह तो ऐसा है न कि जो संपूर्ण रूप से ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं, वे केवलज्ञानी हैं। लेकिन अंशिक रूप में रहता है न, तो थोड़े-थोड़े अंश करके बढ़ता जाता है। जैसे-जैसे कर्मों का निकाल होता जाता है, वैसे-वैसे केवलज्ञान के अंश बढ़ते जाते हैं। अतः उसमें कोई भी दखल नहीं है। यही रास्ता है। यही हाइवे है। जैसे-जैसे ये फाइलें कम होती जाती हैं, वैसे-वैसे ज्ञाता-दृष्टापन का अनुपात बढ़ता जाता है। बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान तक पहुँचता है। एकदम से नहीं हो जाता।
ज्ञाता-दृष्टा को नहीं है कोई परेशानी ज्ञाता-दृष्टा बन जाए तो व्यवस्थित उसका सभी कुछ सुचारू रूप से चला लेता है। देखो, मेरा दिया हुआ नहीं है और आपका लिया हुआ नहीं है। आपका आपके पास है। सिर्फ व्यवहार को एक्सेप्ट करना पड़ता
है।
प्रश्नकर्ता : आपने जो व्यवहार की बात की है, वह व्यवहार किसे करना है?