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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रश्नकर्ता : और दुनिया तो चलती ही रहेगी। दादाश्री : वह चलती ही रहेगी। प्रश्नकर्ता : ‘देखते' रहने से उसकी वह कड़ी छूट गई।
दादाश्री : छूट गई। चलनेवाला और देखनेवाला अलग हो गए न ! चलनेवाले के साथ चलें, तब तक संसार है। उस चलनेवाले को देखना, वही मुक्ति है। दुनिया तो चलती ही रहेगी। वह रुकेगी क्या? आप उसे ऑर्डर करो कि 'रुक जाओ,' फिर भी नहीं रुकेगी? ।
प्रश्नकर्ता : रुकेगी ही नहीं। इस बॉडी में चलनेवाला और देखनेवाला दोनों हैं न?
दादाश्री : हाँ, चलनेवाला और देखनेवाला, दो भाग हैं।
प्रश्नकर्ता : तो जिस तरह दुनिया चलती रहती है, उसी तरह यह भी उसके साथ चलता ही रहेगा न?
दादाश्री : लेकिन वह साथ-साथ बोलता है कि 'मैं चलता भी हूँ और देखता भी हूँ,' तब तक बंधन है। हमेशा साथ-साथ देखता भी जाता है और चलता भी जाता है। देखता जाता है....देखने का स्वभाव तो छूटता नहीं है न! 'देखना' स्वभाव है और 'चलना' विभाव है। देखना तो उसका स्वभाव हो गया और चलने का विभाव, विशेषभाव है!
प्रश्नकर्ता : और 'दुनिया तो चलती ही रहेगी,' ऐसा कहा है न?
दादाश्री : हाँ, निरंतर चलती ही रहती है और यह भी जब तक चले और उसे भी जानते और देखते रहेंगे, तब तक छूटेंगी नहीं। वह तो, जब चलना बंद कर देगा और सिर्फ देखेगा ही, तब छूट जाएगी। अब आप देखते रहते हो न?
प्रश्नकर्ता : लेकिन ये जो चंदूभाई चलते हैं, उन्हें भी देखते रहना है न?
दादाश्री : हाँ, बस इतना ही। यह फिल्म चलती है, उसे देखते रहना