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[२.१३] नोकर्म
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वगैरह सभी संचित हैं। इनमें से जितने उदय में आ गए हैं, फल देने को सम्मुख हुए, उतने ही प्रारब्ध कर्म है। आम के पेड़ में आम तो बीस साल या पच्चीस साल या पचास साल बाद तक आएँगे लेकिन अंदर से जो एक वर्ष का उदय आया, उतने प्रारब्ध कर्म। अतः सभी नोकर्म प्रारब्ध कर्म है।
नोकर्म अतः अकर्म प्रश्नकर्ता : दादा, नोकर्म अर्थात् जो पिछले द्रव्यकर्म में से ऑटोमेटिक बनते हैं, उन्हीं को नोकर्म समझना है? तो नोकर्म बनने का कोई कारण तो होगा न, दादा?
दादाश्री : कर्म करता हुआ दिखाई देता है फिर भी अकर्म है, उसे कहते हैं नोकर्म। लेकिन वह अकर्म नहीं माना जाता। अकर्म तो कब माना जाता है? कि जब 'खुद' शुद्धत्मा बन चुका हो तब, वर्ना सकर्म कहलाता है। अतः अज्ञानी की यह जो प्रकिया है न, तो इसमें जो भावकर्म उत्पन्न होते हैं, उन भावकर्मों में से यह जो प्रकिया हुई उसके बाद फिर द्रव्यकर्म बनते हैं।
प्रश्नकर्ता : यह प्रक्रिया होने के बाद क्या होता है?
दादाश्री : इस क्रिया में क्रोध-मान-माया-लोभ गुथे हुए होते हैं। हर एक क्रिया में क्रोध होता है, मान होता है या लोभ होता है, कुछ न कुछ रहता है। दुकान में जाओ तो कुछ न कुछ होता ही है। वे गुथे हुए हैं, इनमें से द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं।
हम जो ज्ञान देते हैं उसके बाद आपको कर्म नहीं बंधते। ये पाँच आज्ञाएँ दी हैं न, इनका पालन करते हो बस उतने ही कर्म बंधते हैं। कर्म कब बंधते हैं कि 'मैं चंदूभाई हूँ और यह मैंने किया' ऐसा मानें तब कर्म बंधते हैं। अब 'आप चंदूभाई नहीं हो' यह बात तो तय है न! चंदूभाई व्यवहार से है, निश्चय से आप चंदूभाई नहीं हो। अतः कर्म बंधेगे ही नहीं। कर्म बाँधनेवाला गया। जब तक इगोइज़म हो, तभी तक कर्म बंधते हैं।