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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : ऐसा है न कि यह जो डिस्चार्ज है, वह क्रमिक मार्ग का शब्द नहीं है।
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प्रश्नकर्ता : हाँ, यह अक्रम का है ।
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दादाश्री : महात्मा जो गुस्सा करते हैं, चिढ़ते हैं, वह सभी नोकर्म में आ गया। अपना सारा डिस्चार्ज कर्म है। बाकी क्रमिक मार्ग में नोकर्म को वापस जुदा रखना पड़ता है । जहाँ पर राग-द्वेष नहीं होते, वह सारा भाग नोकर्म है, ऐसा हिसाब है । जहाँ क्रोध - मान-माया - लोभ होते हैं वे सभी भावकर्म हैं और बाकी सब नोकर्म । जो भावकर्म हैं, उनमें बहुत संयोग नहीं होते। एक या दो, वे भी नैमित्तिक कारण होते हैं और संयोगों के आधार पर जो होते हैं, वे नोकर्म हैं।
अक्रम विज्ञान में नोकर्म को तो कुछ माना ही नहीं है हमने। वर्ना क्या किसी से कहा जा सकता था कि भाई, ये संसारी लोग, इन्हें मुक्ति का ज्ञान दिया जा सकता था ? कितने दिन तक रह पाता ? लेकिन अक्रम विज्ञान है तो नोकर्म बाधक नहीं हैं। वर्ना क्रमिक में नोकर्म ही बाधक रहते हैं। कितनी मुश्किलें हैं और आपको है कोई परेशानी ? अरे .... शांति से दोपहर को थाली में चटनी - वटनी खाकर और ऑफिस में जाओ तो भी दादा डाँटते नहीं हैं। तो फिर क्या नुकसान है ? दादा की आज्ञा में रहना है, बस इतना ही है! और आज्ञा कोई मुश्किल नहीं है न? आज्ञा क्या कोई मुश्किल है ?
अब समभाव से फाइलों का निकाल करना है। दातुन मिले तो भी फाइल आई। फलाना आया तो भी फाइल आई। नींद की भी फाइल । यानी कि सभी फाइलों का समभाव से निकाल किया जाए तो वे नोकर्म हैं। भावकर्मों को खत्म कर दिया है, पूरी तरह से ।
प्रश्नकर्ता : नोकर्म अर्थात् ये सारे फल हैं?
दादाश्री : हाँ, ये सभी फल हैं। इसलिए मीठे लगें या कड़वे लगें, दोनों का समता से निकाल करना चाहिए तो फिर सब क्लियर होने लगेगा।