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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
भावकर्म रहते हैं तब तक अज्ञानता है और जब भावकर्म रहा ही नहीं तब
ज्ञान।
अतः जब यह ज्ञान दिया, तब हमने पट्टियाँ निकाल दीं। उससे पूरा ही भावकर्म खत्म हो गया जिससे कि पूरा संसार खड़ा है। भावकर्म पूरा ही खत्म हो गया है, उसी को कहते हैं अक्रम। और जैसा आप कहते हैं वैसा ही इस क्रमिक मार्ग में भी कहते हैं कि भावकर्म से वापस द्रव्यकर्म और वापस द्रव्यकर्म में भावकर्म लेकिन वे लोग द्रव्यकर्म को कुछ और ही समझते हैं। बाहर जो व्यवहार चलता है न, उसे कुछ अलग ही समझते हैं। बाकी द्रव्यकर्म का मतलब तो 'उल्टे चश्मे' है, बस। मूल कारण द्रव्यकर्म है। द्रव्यकर्म में से भावकर्म उत्पन्न होते हैं। कारण में से कार्य और कार्य में से वापस कारण उत्पन्न होते हैं। अब यहाँ पर द्रव्यकर्म किसे कहते हैं कि जो दिखाई देते हैं उन कर्मों को द्रव्यकर्म कहते हैं ये लोग। वास्तव में यह हकीकत तीर्थंकरों ने इस तरह से नहीं बताई थी। तीर्थंकरों ने द्रव्यकर्म और भावकर्म, सिर्फ दो ही बताए थे।
प्रश्नकर्ता : लेकिन जो दिखाई देते हैं, वे द्रव्यकर्म नहीं हैं?
दादाश्री : नहीं, नहीं। अभी इस भाषा में तो ऐसा ही चला है लेकिन यहाँ पर तो हमने कहा है न, वही करेक्ट बात है जबकि बाहर जैसा आप कह रहे हो, वैसा चलता है।
प्रश्नकर्ता : उस भाव के बारे में मुझे अभी तक ठीक से समझ में नहीं आया।
दादाश्री : इस पूरी जिंदगी के जो कारण हैं, वे कॉज़ेज़ हैं। वे अगले जन्म में पट्टियों के रूप में आते हैं। आवरण के रूप में अर्थात् पट्टियाँ, लेकिन ज़रा हरा होता है तो हरा दिखाई देता है, पीला होता है तो पीला दिखाई देता है। अतः लोगों में अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं!
प्रश्नकर्ता : तो यह द्रव्यकर्म फिर से अगले जन्म का कारण हुआ न?