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[२.१२] द्रव्यकर्म + भावकर्म
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हो, उससे ये भावकर्म उत्पन्न होते हैं। इसका मालिकीपना छूट जाए तो फिर भावकर्म खत्म हो जाएगा। भावकर्म खत्म हो जाएगा तो फिर चार्ज कर्म बंद हो जाते हैं और सिर्फ डिस्चार्ज ही रहता है। वे इस देह से भोगने
हैं।
प्रश्नकर्ता : भावकर्म में प्रकार और डिग्री उसी अनुसार होती है या उसके प्रकार और डिग्री बदलते हैं?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। एक ही तरह का होता है। वह मूल जगह से रिसता रहता है, उसे भावकर्म कहते हैं। और फिर उससे नए द्रव्यकर्म बनते-बनते तो कितना ही टाइम लग जाता है!
आत्मा को अशुद्धि लगने का रहस्य प्रश्नकर्ता : यहाँ पर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि आत्मा यदि शुद्ध ही था, बिल्कुल, पूर्ण शुद्ध। यह जो पुद्गल के सामीप्य में आया था, तब उसे ऐसा क्यों हो गया? 'मैं शुद्ध नहीं हूँ' और उसने यह पकड़ लिया, अपनी शुद्धता को वह भूल गया उस समय?
दादाश्री : नहीं, वह भूला नहीं है कुछ भी। व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो गए हैं।
प्रश्नकर्ता : यानी कि उसने भाव किया?
दादाश्री : नहीं, भाव वगैरह कुछ भी किया ही नहीं। उस द्रव्यकर्मों में से, ये व्यतिरेक गुण भावकर्म उत्पन्न हुए। भावकर्म यानी कि, मान अतः मैं व लोभ यानी मेरा। मैं और मेरा हुआ कि शुरू हो गया। उस 'मैं' को दु:ख होता है। आत्मा को तो कुछ स्पर्श ही नहीं करता लेकिन अब उसे यह दुःख पड़ना बंद कैसे होगा? उस दुःख का अनुभव होता है न! क्योंकि 'मैं' पने की बिलीफ है। बिलीफ यानी क्या है कि इसमें चेतन का पावर भरा हुआ है, मान लिया है इसलिए। चेतन का कैसा पावर आया? बिलीफरूपी। उस पावर का दुःख है, इसमें यह पावर है न, उससे दु:ख है। पावर खिंच जाए तो दु:ख