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[२.१०] घाती-अघाती कर्म
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कोई कहे, 'इस संत के जितने हीरे क्यों नहीं है दादा के पास?' मैंने कहा, 'दादा को इच्छा ही नहीं होती न!' मेरी इच्छा हो और न मिले तो अंतराय कहलाएगा। वैसी इच्छा ही नहीं है न किसी प्रकार की। दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय के बाद वेदनीय में से खास तौर पर अशाता वेदनीय कभी कभार ही होती है, बाकी अशाता वेदनीय नहीं रहती। और वह भी फिर कुछ खास नहीं होती। खुद जान सकें, ऐसी होती है। नामकर्म बहुत अच्छा, गोत्रकर्म भी अच्छा, आयुष्य भी अच्छा। सभी प्रकार से फुल, आठों कर्म उच्च प्रकार के!
केवलज्ञान का मतलब क्या है? चार घातीकर्म का बंद हो जाना, रुक जाना, उसे कहते हैं केवलज्ञान। और वे चार जो अघाती कर्म कहलाते हैं, जो बंधे हुए हैं, वे। अघाती से तो भगवान भी नहीं बच सके न! वैसे ही आपके भी अघाती हैं और उनके भी अघाती हैं लेकिन उनके अघाती में फर्क है कि वे उन सब को खपा-खपाकर गए और आपके अघाती खपाने बाकी हैं लेकिन दोनों ही अघाती माने जाते हैं। एक का सौ रुपये का क़र्ज़ और किसी का लाख का क़र्ज़ लेकिन दोनों क़र्ज़ ही माने जाएँगे। सौ वाले को एक-एक रुपया भरना पड़ता है और इसे हज़ार-हज़ार भरने पड़ते हैं क्योंकि रकम बड़ी है।
फिर भी इन सभी कर्मों को खपाना हैं। खपाना अर्थात् समतापूर्वक खपाने पड़ेंगे न! हम डिब्बे (भरा हुआ माल) लेकर आए हैं, वे सभी डिब्बे वापस दे देने पड़ेंगे। ये डिब्बे पराई चीज़ हैं। अपने नहीं हैं ये डिब्बे । पराया माल है यह सारा। दे नहीं देना पड़ेगा? दे दो यह सब झटपट । 'झटपट यहाँ से ले जाओ भाई। अपना माल अपने घर ले जाओ।'
प्रश्नकर्ता : अब जो डिस्चार्ज कर्म हैं, वे तो बचे हैं न?
दादाश्री : डिस्चार्ज अर्थात् चार घाती कर्मों का परिणाम और चार्ज अर्थात् घातीकर्म का कारण, यानी कि कॉज़। यानी कि कारण बंद हो गया है अब। जो अघाती कर्म बचे हैं, वे इन चार घातीकर्मों का परिणाम हैं। अब जब कारण था, तभी परिणाम उत्पन्न हुए थे। अब कारण बंद हो गए हैं,