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[२.९] आयुष्य कर्म
दादाश्री : वह तो, इस काल के आधार पर ये आयुष्य कर्म काफी कम ही होते हैं। इस काल का दबाव बहुत है, ज़बरदस्त! इसलिए आयुष्य ज़रूरत के मुताबिक नहीं होता, दूसरी सारी पुण्य प्रकृति होती है । लेकिन अन्य चीज़ों में बँट जाती है और सिर्फ आयुष्य में ही कम पड़ जाती है। कृपालुदेव तो ज्ञानीपुरुष कहलाते हैं।
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और दूसरा, लोगों का पुण्य परिपक्व नहीं होता । दोनों अवसर मिलें तब ऐसा योग बैठता है । पुण्य जागृत हो तब ! ज्ञानीपुरुष के लिए तो जीना या मरना, इससे कोई भी लेना-देना नहीं है । इन सभी महान पुरुषों में से कृपालुदेव ज्ञानीपुरुष कहलाते हैं। बाकी के सभी ज्ञानी नहीं कहलाते । बाकी के सभी शास्त्रज्ञानी कहलाते हैं और ये आत्मज्ञानी कहलाते हैं । उन्हें जीनेमरने जैसा कुछ रहता ही नहीं ।
दादा का आयुष्य
हमारे चारों ही कर्म बहुत उच्च हैं। बहुत उच्च प्रकार के हैं। देखो न, जी रहे हैं न, अठहत्तर साल तक ! यही तो प्रमाण है। अभी तो और भी जीएँगे, तब देख लेंगे। यह तो एक्ज़ेक्ट हो गया न अठहत्तरवाँ । उसमें कम नहीं करेंगे न या अभी भी कर सकते हैं कम? इस काल में पचास साल की उम्र के बाद जीना बोनस कहलाता है । डॉक्टर कहते हैं, 'अभी तो दसपंद्रह साल निकालेंगे,' और ये तो और भी अधिक कह रहे हैं, उससे भी अधिक। नहीं?
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आज-कल बढ़े हैं आयुष्य लोगों के
प्रश्नकर्ता: एक बहन हैं, वे दो महीनों से बेहोश हैं, कोमा में हैं । अब यों तो उनका आयुष्य इतना बाकी है इसलिए अभी तक जी रही हैं, साँसें चल रही हैं लेकिन उनका द्रव्यकर्म तो कुछ भी नहीं रहा। सिर्फ कोमा में ही, बेहोशी की अवस्था में ही है।
दादाश्री : नहीं, यह वेदना भोग रही हैं । यह वेदनीय कर्म है। द्रव्यकर्म का उदय हो, तभी वेदनीय हो सकता है न? वे द्रव्यकर्म के वेदनीय कर्म में हैं अभी। वेदनीय कर्म वेद ही रही हैं ।