________________
२४२
आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
यश-अपयश भी साथ में नहीं आनेवाला। अगर पूज्यता और लोकपूज्यता में फँस गया तो फिर मोक्ष नहीं होगा कभी भी।
लोकपूज्य यानी क्या कि हम जा रहे हों न, तो पीछे से लोग ऐसे जय-जय करते हैं। ओढ़कर सो गए हों न, तो भी लोग ऐसे-ऐसे करके दर्शन करके जाते हैं। उनसे पूछो भाई, किसने नोट किया?' तब कहते हैं, 'वह देखने की ज़रूरत नहीं है। ये तो लोकपूज्य हैं!' यानी कि ऐसा लोकपूज्यपना लेकर आया हुआ हूँ कि अन्जान इंसान के साथ भी अगर गाड़ी में दो-चार घंटे सत्संग हो गया कि उसे पूज्यता उत्पन्न हो जाती है। उसे लोकपूज्यपना कहते हैं। यह उच्च गोत्रकर्म कहलाता है। कदाचित ही जगत् में लोकपूज्य लोग होते हैं। जगत् में लोकपूज्य लोग नहीं होते, बाकी सबकुछ होता है। कदाचित ही होते हैं और यदि मिल जाएँ तो काम निकल जाए अपना।
किसी बड़े मंत्री की लोकपूज्यता नहीं है। कोई पुलिसवाला दिखे तो कहेगा, 'साहब, आइए, आइए।' तो वह कहाँ से बोल रहा है? जाने के बाद कहेगा, 'जाने दो, जाने दो यहाँ से।' भय के मारे पूजते हैं लोग। किसलिए? कहीं मुश्किल में फँस जाएँ, उसके बजाय इन्हें सलाम कर लो न! एक प्रकार का भय ही है न? जो लोकनिंद्य नहीं है, वह लोकपूज्य है इस काल में
अभी यह काल विचित्र है अतः जो लोकपूज्य नहीं है और लोकिनिंद्य भी नहीं है उसे भगवान ने लोकपूज्य की तरह एक्सेप्ट किया है। यानी कि निंद्य नहीं होना चाहिए। निंद्य में आया कि खत्म हो गया।
अतः इस काल में हमने हमारे स्वतंत्र मत का उपयोग किया है। जो लोकनंद्य नहीं है, इस काल में वह लोकपूज्य है। तीर्थंकरों ने जिन्हें लोकपूज्य कहा है, वह तो किसी खास काल के आधार पर कहा है। इस काल में हम क्या कहते हैं कि जो लोकनिंद्य नहीं है, उसे हम लोकपूज्य कहते हैं। उसकी ज़िम्मेदारी हम अपने सिर पर ले लेते हैं। अतः लोकनिंद्य मत बनना। भले ही लोकपूज्य नहीं हुआ जा सके, नहीं हुआ जा सकेगा,