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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
समझते हैं कि ‘ये कोई बहुत बड़े आदमी आए हैं।' इसे लोकपूज्य कहते हैं। अब लोकपूज्य गोत्र यहाँ पर है ही नहीं । लोकपूज्य गोत्र तो किसे कहते हैं कि, वे संसार व्यवहार में बड़े माने जाएँ। ये सब द्रव्यकर्म हैं । यह शरीर बना, वह द्रव्यकर्म है।
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अब आज-कल तो गोत्र का अर्थ रहा ही नहीं । फिर भी लोग कहते हैं, हम इस गोत्र के, इस गोत्र के । उच्च गोत्र का अर्थ भगवान ने कुछ और बताया है जबकि लोग खुद की भाषा में ले गए । उच्च गोत्र का अर्थ है लोकपूज्य । वह आप में भी है कुछ अंशों तक। आपके सगे-संबंधियों में भी थोड़े बहुत अंशों में होता है। संपूर्ण लोकपूज्य तो ज्ञानीपुरुष होते हैं, तीर्थंकर होते हैं। उनके अलावा कोई भी संपूर्ण लोकपूज्य नहीं होता । ज्ञानीपुरुष और तीर्थंकर जब जा रहे हों न, तो लोग पीछे से भी नमस्कार करते रहते हैं।
और फिर गोत्रकर्म में या तो प्रख्यात होता है या फिर निंदित होता है। कोई अगर इन साहब के बारे में ऐसी कुछ बात करने लगे तो दूसरा व्यक्ति कहता है, ‘नहीं, उससे दोष लगेगा, ऐसा नहीं बोलना चाहिए ।' उनके पीठ पीछे भी ऐसा कहता है । लोकपूज्य की अनुपस्थिति में भी लोग क्या कहते हैं? ‘ऐसा मत कहना, मत कहना, बुरा दिखेगा, गलत है ।' ऐसे लोकपूज्य बनो। लोग निंदा करना बंद कर दें। और अपना ज्ञान है, तो ऐसा बना जा सकता है। नहीं तो नहीं बना जा सकता। यह ज्ञान ही ऐसा है । आपको लगता है कि इस ज्ञान से इस स्थिति तक पहुँच पाएँगे?
दो-पाँच लोग अगर कुछ उल्टा बोलें तो वे तो उनके राग-द्वेष के परिणाम हैं। निंद्य को तो सभी लोग कहते हैं 'जाने दो न !' वह लोकनिंद्य है। अच्छे कर्म करने पर भी कहेंगे, 'जाने दो न, नाम ही मत लो।' ऐसे लोग लोकिनिंद्य कहलाते हैं। लोग निंदा करते हैं बेचारे की । कोई अच्छा काम करने जाएँ, फिर भी वे निंदा के घेरे में आ जाते हैं । 'अरे, इसी ने बिगाड़ा होगा और कोई बिगाड़ ही नहीं सकता' कहते हैं । ' अरे भाई, इसने कुछ नहीं किया है ।' फिर भी कहते हैं 'नहीं'। सबकुछ उसी के सिर ।