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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
न, खुद के दुश्मन का भी कल्याण करने की भावना हो, ऐसा सब हो, तब उच्च नामकर्म मिलता है ।
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जगत् कल्याण की भावना बहुत काल से, बहुत जन्मों से करते आए हों, तो यशनाम कर्म बहुत बड़ा होता है । जगत् कल्याण की भावना में से ही यशनाम कर्म उत्पन्न होता है । जितनी उसे ऐसी इच्छा हो कि जगत् का कल्याण हो, लोगों को सुख हो तो उससे यशनाम कर्म बंधता है और जब दुनिया को परेशान करे, तब अपयश नामकर्म बंधता है।
वह था दादा का नामकर्म
हमारे पैर में फ्रेक्चर हुआ तो मैंने खोज की कि यह वेदनीय कर्म है या क्या है? वेदनीय कर्म होता तो उसी दिन से रोना आता और परेशानी हो जाती न? फिर मैंने पता लगाया, तब समझ में आया कि यह भूल नामकर्म में है।
नामकर्म में क्या-क्या आया कि शरीर के अंग-उपांग, हाइट वगैरह बहुत लंबे नहीं, बहुत ठिगने भी नहीं, नोर्मेलिटी । नामकर्म में अंग-उपांग सभी सुडौल होने चाहिए न, उसमें इतनी कमी ला दी है । वेदनीय नहीं है यह । मैंने खोज की तो वह मैंने आपसे कहा नहीं था? यह नामकर्म है । लोग समझते कि यह तो वेदना नहीं आई, न ही और कुछ हुआ तो यह क्या हुआ? नामकर्म में कुछ भूल हो गई है। अब यह मेरे कौन से कर्म का हिसाब है, ऐसा ढूँढ निकालना पड़ेगा न? ऐसी क्या भूल रह गई कि यह हिसाब आया ?
डॉक्टर के कहे अनुसार ऐसे में लाचार हो जाते हैं । इसमें तो कुछ हुआ ही नहीं न! सभी डॉक्टरों ने हमें हँसता हुआ ही पाया। और डॉक्टर ने दूसरे डॉक्टरों को भेजा कि 'जाओ, देखकर आओ निरावृत (खुला) आत्मा।' इससे आपको समझ में आया कि यह वेदनीय कर्म नहीं है, नामकर्म है। गोत्रकर्म भी नहीं है । गोत्रकर्म में कुछ कमी होती न, तो दर्शन करने में कितने ही महात्माओं का मन पीछे हट जाता, लोकपूज्यता कम हो जाती। इससे तो बल्कि लोकपूज्यता बढ़ी।
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