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[२.७] नामकर्म
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किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं, परोपकारी। सभी प्रकार के गुण ऐसे ही
थे न इसलिए। इस जन्म के गुण नहीं हैं, पिछले जन्म के गुणों से यह आदेय नामकर्म छप चुका है।
आदेय नामकर्म, अर्थात् वह जहाँ जाए, वहाँ लोग उसे 'आइए पधारिए, आइए पधारिए, आइए पधारिए' कहते हैं। अन्जान जगह पर जाए, वहाँ पर भी 'आइए पधारिए' कहते हैं।
हम जंगल में गए हों तो हमारे साथवाले तो सभी दंग रह जाते हैं। अरे, इसे क्या कहेंगे? यह व्यक्ति आपके लिए यहाँ पर गद्दी ले आया? भले ही वह कितनी भी फटी-टूटी हो लेकिन ऐसी जगह पर जहाँ कुछ भी न मिले, पत्ता भी न मिले ऐसा हो। मैंने कहा, 'यही आदेय नामकर्म है।' जहाँ देखो वहाँ सत्ता होती है, आगे से आगे।
हालांकि अगर मुझे नहीं बुलाएँ तो मुझे कोई परेशानी नहीं है। लेकिन दूसरे सब पाटीदारों को तो बुखार चढ़ जाता है। जाएँगे ही नहीं न वे।
प्रश्नकर्ता : लेकिन सब को ऐसा ही है। 'आइए' कहें तो सभी को अच्छा लगता है न!
दादाश्री : कहीं पर आव-भगत नहीं, आदर नहीं तो वहाँ फिर हमें तो लोग अवश्य ही 'आइए, आइए' कहते हैं, क्योंकि हम आदेयमान कहलाते हैं। आदेयमान अर्थात् क्या कि हम चाहे कहीं भी जाएँ, इंदिरा गांधी के वहाँ जाएँ और बाहर बिठाया हो लेकिन जब अंदर उनके सामने जाएँ
और वे हमें देखें तो देखते ही, 'आइए पधारिए, पधारिए, पधारिए' कहेंगी। पहले नाम सुने तब मन में ऐसा होता है कि 'पधारिए'। फिर तो 'आइए पधारिए, आइए पधारिए।' इतनी गदगद हो जाएँ और अगर उनके परिवार के कोई पारसी आएँ, तो उन्हें ऐसे नहीं बुलाएँगी। दो तीन साल में आया हो, फिर भी यहाँ अंदर आए तो नहीं बुलाएँगी। वह अनादेय नामकर्म लेकर आया है। हम कहें कि, 'ये सेठ आए हैं।' तब भी वे उन्हें न बुलाएँ।
यह तो, कर्मों के खेल देखने में मज़ा आता है। कर्म क्या-क्या करते हैं, उसके बारे में क्या कह सकते हैं? ऐसे कई तरह-तरह के कर्म होते हैं।