________________
अब पुद्गल को शुद्ध किस तरह से किया जा सकता है? प्रतिक्रमण
से!
प्रकृति के स्वभाव को निहारना, वह ज्ञायकता है। प्रकृति का सिर दु:खे तो उसे 'देखना' हैं। 'मुझे दुःखा' कहेंगे तो वहाँ पर अजागृति घेर लेगी। सभी कुछ उसे चिपक जाता है। जैसा चिंतवन करे, वह तुरंत वैसा ही हो जाता है!
रात को चार मच्छर मंडराएँ तब ऐसे मारता है उन्हें । यह प्रकृति दोष निकला। तब आप परेशान हो जाते हो। दादाश्री कहते हैं कि मेरी मच्छरदानी में दो मच्छर घुस जाएँ तो ये बहन निकाल देती हैं। क्योंकि अगर पिछले जन्म में मच्छरों के लिए चिढ़ घुस गई हो तो उसे निकालने में देर लगती है, वह प्रकृति में गुथी हुई ही होती है।
जैन शास्त्र बाईस परिषह को सहन करने को कहते हैं। लेकिन इस काल में एक भी परिषह किसी से सहन नहीं हो सकता। लेकिन इस अक्रम विज्ञान द्वारा सभी से छूटा जा सके, ऐसा है!
पूरे दिन खुद की प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा कैसे रहा जा सकता है? फाइल नं-१ यानी खुद की प्रकृति क्या कर रही है, उसे देखते रहना है। वह टेढ़ा-मेढ़ा करे तो हमें उसे देखते रहना है, 'क्या बात है!' उसके साथ बातें करनी चाहिए तो दोनों अलग के अलग।
दादाश्री खुद के अनुभव बताते हुए कहते हैं, नवनिर्माण आंदोलन के समय विद्यार्थी जब बसें जलाते थे, तब वह सब देखकर दादाश्री की प्रकृति में हुआ कि 'अरे, अरे! इन लड़कों ने क्या लगा रखा है?! इन्हें पता नहीं, खुद कैसे जोखिम मोल ले रहे हैं?!' एक तरफ वे खुद ये देखते रहते थे और दूसरी तरफ यह भी दिखाई देता था कि प्रकृति ऐसा बोल रही है। बस जला रहे हैं, ऐसा कर रहे हैं। उसमें अपने बाप का क्या चला गया?!' प्रकृति अक्लमंदी दिखाए बगैर रहती ही नहीं न !
प्रकृति को देखना और उससे बातें करनी हैं। कैसे हो, कैसे नहीं,
31