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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
को ऐसा लगता है कि हम पर वेदनीय आई, हमें तो अशाता वेदनीय ने एक मिनट, एक सेकन्ड के लिए भी स्पर्श नहीं किया है इन तीस सालों से!
और वही विज्ञान मैंने आपको दिया है और आप अगर कच्चे पड़ो तो वह आपका। समझ में कच्चे नहीं पड़ना चाहिए न कभी भी? एक मिनट के लिए भी नहीं? तब तू सही है!
तेरे भोगवटे को 'तू' जान यह तो तय ही है कि इस भाई को इतनी अशाता होगी और शाता इतनी ही होगी, यह डिसाइडेड रहता है। फिर भी फिर भी अशाता किए बगैर रहता नहीं है वह। इधर से उधर लोट लगाता है, इधर से उधर लोट लगाता है लेकिन अशाता करता है।
प्रश्नकर्ता : दादा, वह तो अगर ज्ञान नहीं हुआ हो, तभी न? आपके ज्ञान देने के बाद तो चला गया न सबकुछ?
दादाश्री : हाँ, वह तो सब चला गया। यह तो बात कर रहे हैं।
वह रोए, चिढ़े, वह ऐसे करे, लेकिन यदि ऐसा भान रहे कि 'आत्मा के तौर पर मैं जुदा हूँ,' तो बस हो गया। 'मैं चंदू नहीं हूँ।' किसी भी प्रकार से 'मैं चंदू नहीं हूँ।' अगर शाता वेदना हो तो शाता में तो लोगों को ऐसा ही रहता है कि 'मैं चंदू हूँ,' लेकिन 'वह' 'चंदू' नहीं है ऐसा कब पक्का होता है? अशाता होती है तब। अतः वास्तव में 'चंदू' नहीं है, वह बात पक्की हो जाती है।
प्रश्नकर्ता : उसके बाद वह स्थिति रहती ही नहीं। दादाश्री : फिर झंझट ही नहीं रहता न!
निरालंब को नहीं छूती वेदनीय
जैसे-जैसे आत्मा का अनुभव बढ़ता जाता है, तब फिर वेदनीय को भी वह जानता है, 'यह कड़वा है, यह मीठा है।' वेद अर्थात् क्या? कड़वे की वेदनीय उसे नहीं होती। इसका मतलब कड़वा, लगता तो कड़वा ही