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[२.५] अंतराय कर्म
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प्रश्नकर्ता : निश्चय ही पुरुषार्थ है न? दादाश्री : हाँ निश्चय, कि मुझे ऐसा करना ही है । प्रश्नकर्ता : लेकिन सभी के निश्चय नहीं फलते ।
दादाश्री : वह फले या न फले, वह हमें नहीं देखना है । हमें तो निश्चय करना है! अगर निश्चय नहीं करोगे तो कोई काम होगा ही नहीं। खुद का अनिश्चय ही अंतराय है । निश्चय करने से अंतराय टूट जाते हैं। आत्मा का निश्चय हो जाए तो सभी अंतराय टूट ही जाएँगे न !
फर्क, निश्चय और इच्छा में
प्रश्नकर्ता : आपने आप्तवाणी में ऐसा कहा है कि 'विल पावर से अंतराय टूटते हैं' और दूसरी तरफ हम जानते हैं कि इच्छा करने से तो अंतराय पड़ते हैं।
दादाश्री : इच्छा नहीं करनी है, निश्चय करने को कहा है। निश्चय किया तो चाहे कैसा भी अंतराय हो, टूट ही जाएगा।
प्रश्नकर्ता : हम किसी चीज़ की सतत इच्छा करें, निश्चय करें कि यह चीज़ मुझे प्राप्त करनी ही है, तो फिर क्या ऐसा नहीं होगा कि इस इच्छा से अंतराय पड़ेंगे?
दादाश्री : निश्चय होना चाहिए, इच्छा का प्रश्न ही कहाँ आया? प्रश्नकर्ता: निश्चय और इच्छा में क्या फर्क है? वह ज़रा समझाइए न !
दादाश्री : बहुत फर्क है । इच्छा का मतलब तो खुद की मनचाही चीज़ और निश्चय तो एक्ज़ेक्टनेस है । अनिच्छा अर्थात् अच्छी न लगनेवाली (नापसंद) चीज़। इच्छा अर्थात् अच्छी लगनेवाली (पसंदीदा ) चीज़ | और निश्चय का और इसका कुछ लेना-देना नहीं है । निश्चय का मतलब तो निर्धार किया हमने।
प्रश्नकर्ता: निश्चय और इच्छा के बारे में उदाहरण देकर समझाइए न ! दादाश्री : इसमें कैसा उदाहरण भला? मनचाही चीज़ यानी हमें