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[२.५] अंतराय कर्म
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दादाश्री : हाँ, अंतराय कर्म एक ही पड़ता है और ज्ञानांतराय के साथ में सभी प्रकार के पड़ते जाते हैं। पुस्तक बेच देता है, जला देता है, क्रोध में आकर न जाने क्या कर देता है। उसे समझ नहीं है बेचारे को! उसे मालूम नहीं है न कि किसी का फोटो नहीं जलाना चाहिए। फोटो जलाना तो इंसान को मारने के बराबर है। हाँ, कुछ लोग गुस्से में फोटो जला देते हैं। नहीं जलाना चाहिए, वह स्थापना है।
स्थापना नाम सहित होती है। भले ही वह जीवित व्यक्ति नहीं है, उसमें द्रव्य-भाव नहीं है, लकिन नाम स्थापना तो है न! भगवान की मूर्ति को भी कुछ नहीं करना चाहिए। तो लोग कहते हैं, 'कुछ लोग भगवान की मूर्तियों को तोड़ देते हैं तो उन्हें क्यों कुछ नहीं होता?' उन्हें भी फल मिले बगैर तो रहेगा ही नहीं न! मूर्ति कभी भी कुछ नहीं करती, शासन देव करते हैं। लेकिन लोगों का मन दुःखाया तो उसका फल मिलेगा। आप अगर किसी जाति का धर्म स्थान जला दो, तो उससे कितने ही लोगों का मन दुःखता है। आपको उसका फल अवश्य मिलेगा। किसी को दुःख देकर आप कभी भी सुखी नहीं हो सकते, इसलिए हो सके उतना सुख दो। न हो सके तो दुःख तो देना ही नहीं चाहिए और दुःख नासमझी से दिए जाते हैं। लोग मन में क्या समझते हैं कि 'मैं नहीं देता हूँ, लेकिन सभी मुझे ऐसा कहते हैं। हमें ऐसा गलत नहीं करना है, किसी को भी दुःख नहीं देना है।' मैंने कहा, 'लेकिन तू समझता क्या है? अरे, पूरे दिन दुःख ही देता है तू! क्या समझता है तू इससे' वह तो अपनी भाषा में बात करता है, खुद की लेंग्वेज में। तू मेरी लेंग्वेज सुन। पूरे दिन तू दुःख ही देता रहता है। सर्टिफाइड लेंग्वेज है ज्ञानी की। उससे आगे कुछ भी समझने या सोचने को नहीं रहता। यह समझना तो पड़ेगा ही न, कभी न कभी!
निश्चय से टूटें धागे अंतराय के जिसे यह 'ज्ञान' मिल जाए न, उसके तो सभी अंतराय टूट जाते हैं। यहाँ पर मैं आपसे क्या कहता हूँ कि सभी अंतराय टूटने का रास्ता बना दिया है। मैंने आपको यह ज्ञान दिया है न और साथ-साथ ये सब आज्ञाएँ दी हैं न, तो इनसे सभी अंतराय टूट जाएँगे।