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[२.५] अंतराय कर्म
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प्रश्नकर्ता : समर्पित भाव आना चाहिए न!
दादाश्री : इसे कहते हैं अंतराय कर्म। इन ज्ञानीपुरुष से भेंट नहीं हो सकती। जेनी कोटी जन्मों नी पुण्यई जागे रे, त्यारे दादा ना दर्शन थाय। (जिसके कोटि जन्मों के पुण्य जागृत हों, तभी दादा के दर्शन होते हैं।) अब बोलो, तैयार मोक्ष का निवाला दिया, सब सावधान भी करते हैं। भोजन के निवाले तो फिर भी मिलेंगे या न भी मिलें लेकिन यह मोक्ष का निवाला? फिर से ज्ञानीपुरुष नहीं दिखेंगे!
प्रश्नकर्ता : अनंत अवतार में भी नहीं मिलते।
दादाश्री : यह अक्रम ज्ञान तो हज़ारों सालों में, लाखों सालों में, भी प्रकट नहीं होता! दृढ़ विश्वासी, हमारे कहे शब्द के अनुसार अंदर तैयार हो जाता है। और अगर आप कहो कि, 'ये दादा तो रोज़ कहते ही हैं न, ऐसा का ऐसा ही कहते हैं! और घर के ही दादा हैं न?! तो नुकसान उठाओगे।
कुछ लोगों के परोक्ष के अंतराय टूट चुके होते हैं और कुछ लोगों के प्रत्यक्ष के अंतराय टूट चुके होते हैं। जिसके परोक्ष के अंतराय टूट चुके हों, उन्हें प्रत्यक्ष के अंतराय रहते ही हैं हमेशा के लिए, इसलिए परोक्ष ही मिलते हैं। प्रत्यक्ष के बहुत बड़े अंतराय पड़े हुए होते हैं। वह मैंने देखा है, बड़े-बड़े अंतराय पड़े हुए हैं। उसकी मेहनत बेकार जाती है, अपनी मेहनत बेकार जाती है। आप चिट्ठी लिख-लिखकर थक जाते हो।
प्रश्नकर्ता : आपसे मिलने के लिए बीच में इतना अधिक अंतराय क्यों आया? क्योंकि मैं तो बहुत समय से आपको जानता हूँ।
दादाश्री : हर एक के अंतराय होते हैं। जानकार को अंतराय होते हैं, अन्जान को अंतराय नहीं होते। जानकार को अंतराय होते हैं। एक बार बोले न कि 'ऐसे हैं, वैसे हैं,' तो तुरंत अंतराय पड़ जाते हैं वापस। किसी के कहने से बोले तो भी अंतराय पड़ जाते हैं। जानकार को अंतराय। अन्जान को अंतराय नहीं होते। उनकी और हमारी जान-पहचान नहीं है इसलिए अंतराय ही नहीं हैं न! तो है कोई झंझट?
सही बात हो या न भी हो लेकिन पाँच टीका-टिप्पणी करनेवाले हों