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ओर, लेकिन अंतरदाह तो निरंतर चलता ही रहता है। साधु हो या आचार्य हो, सभी में अंतरदाह तो चलता ही रहता है क्योंकि जैसे ही उसे ऐसा हुआ कि 'मैं साधु हूँ, आचार्य हूँ,' तो बस, यह शुरू हो जाता है। जो नहीं है, उसी का आरोप करके चलते हैं। अनंत जन्मों से ये भटक रहे हैं। खुद हैं अनामी और नाम धारण करके रौब जमाते हैं।
प्रश्नकर्ता : मान लीजिए कि कोई यहाँ प्राप्ति न कर सके, अंतराय डाले हुए हों, तो उन लोगों में श्रद्धा लाने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : श्रद्धा लाने के लिए तो एक बार उसे पटाकर यहाँ मेरे पास ले आना चाहिए। रास्ता मैं निकाल दूंगा। अगर कुत्ते को भी ऐसे-ऐसे करें, तब कई बार हम जहाँ चाहे वहाँ आ जाता है। इस तरह उसे भी ज़रा पटाकर ले आओ तो आ जाएगा। फिर मैं उससे बात करूँगा न तो उसे मन में स्पष्ट समझ में आ जाएगा। क्योंकि हमारी बात वीतरागी है, आग्रही नहीं है कि ऐसा कर'। यह रिलेटिव सारा आग्रहवाला होता है।
हम अगर बात न करें न तो ये बहन बात भी न करें। आखिर तक बैठी ही रहें। गुत्थियोंवाली हैं न? अब इनकी इच्छा नहीं है गुत्थियों की, लेकिन अंदर अंतराय कर्म ऐसे हैं कि निरी गुत्थियाँ ही बनती रहती हैं। इसलिए फिर हमें बात करनी थी। मैंने कहा, 'ये बहन यहाँ पर आई हैं बेचारी, इनका चक्कर लगाना बेकार जाएगा। उनके अंदर जो आत्मा है न, उनके साथ सीधा तार जोड़ा, कि 'ऐसा कुछ करो कि इन बहन से ज़रा बात हो सके।' अंदर भगवान के साथ सेटिंग करके मशीनरी घुमाई तब इतनी बातचीत हुई। नहीं तो क्या ये कभी बातचीत करती? अंदर गुत्थियाँ हैं, बेहद! अब, इनका दोष नहीं है। इसमें तो, अंतराय कर्म उलझाते हैं। आपको समझ में आई यह बात?
वर्ना यहाँ तो इंसान आते ही शुद्ध हो जाता है, अंदर घुसते ही शुद्ध हो जाता है। यहाँ पर माया के परमाणु हैं ही नहीं न! इसलिए माया यहाँ से दूर खड़ी रहती है। यहाँ पर ज्ञानीपुरुष के पास माया से नहीं आया जा सकता। गुत्थियाँ क्या हैं, आपको समझ में आया न बहन?