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[२.५] अंतराय कर्म
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दादाश्री : अर्थात् सही बात भी नहीं सुनी है लोगों की । उससे अंतराय पड़े। भगवान ने क्या कहा है कि सही बातें तो सुनो। ऐसे इतना अहंकार क्यों कर रहे हो?
तो इससे बहरे हो जाते हैं । जिस विषय का सदुपयोग नहीं हुआ है, उस विषय पर आघात हुए बगैर रहेगा ही नहीं । हाँ ! आँखों का सदुपयोग नहीं हुआ हो तो चश्मे मंगवाने पड़ते हैं ।
प्रश्नकर्ता : कई बार ऐसा लगता है कि वास्तव में यदि ज़्यादा अंतराय आते हैं तो इस शरीर को आते हैं । ऐसा ज़्यादा लगता है कि सभी अंतराय इस शरीर के हैं
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दादाश्री: हाँ, ज़्यादा । शरीर के ही तो, और कौन से ? मन के तो बहुत नहीं होते ।
भोग-उपभोग के अंतराय
प्रश्नकर्ता : भोग अंतराय, उपभोग - अंतराय वगैरह समझाइए ।
दादाश्री : भोग के अंतराय पड़े होते हैं, उपभोग के अंतराय पड़े होते हैं। तीर्थंकर भगवान भोग किसे कहते होंगे? और उपभोग किसे कहते होंगे? एक बार भोग लिए जाने के बाद दूसरी बार नहीं भोगा जा सके, जैसे कि आम खा लिया तो एक बार भोग लिया तो उसे भोग कहते हैं । पेट में से निकालकर फिर से खाया नहीं जा सकता। फिर से स्वाद नहीं आता न?
प्रश्नकर्ता : नहीं आता।
दादाश्री : ऐसा ! ये भोग और उपभोग क्या हैं? यह कमीज़ फिर से पहनी जा सकती है, ये चश्मे फिर से लगाए जा सकते हैं, यह देह दूसरे दिन काम आती है, आँखें दूसरे दिन काम आती हैं अतः ये उपभोग हैं। जो बार - बार भोगे जा सकें उन्हें उपभोग कहते हैं ।
और ये जो कपड़े हैं, इन्हें रोज़-रोज़ पहनते हैं इसलिए उपभोग