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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
को पहचानने के लिए। यानी कि दोनों चले गए। मोहनीय किसका फल है? दर्शनावरण का फल है। अब दर्शनावरण खत्म हो जाए तो उसके बाद ये चारों ही खत्म हो जाएँगे। अपना दर्शनावरण खत्म हो चुका है।
प्रश्नकर्ता : दर्शनावरण को अलग किया और दर्शन मोहनीय को अलग किया।
दादाश्री : हाँ, मोह अर्थात् क्या? अदर्शन। जो अदर्शन है वह नहीं दिखता और यह जो दर्शन है, वह दिखाई देता है। इसी को दर्शनावरण खत्म होना कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : दर्शनावरणीय और दर्शन मोहनीय में क्या भेद है?
दादाश्री : वह आवरण, वह तो ढकी हुई चीज़ है। पूरा ही दर्शन ढका हुआ है। ज्ञान ढका हुआ है। जिस हद तक खुल गया है, उस हद तक ही खुला है, बाकी सारा ढका हुआ ही है।
मोहनीय ने उसे ढका है। अतः जो भाव होना चाहिए, वह नहीं हो पाता। मोहभाव होता है, सम्मोहन होता है। ढका हुआ होने की वजह से। खुद के स्वरूप का भान नहीं हो पाता इसलिए सम्मोहन होता है। अत: वह मोहनीय कर्म है और वह मोहनीय अंतराय डालता है। वह खुद आत्मा से अलग हो गया, अंतर पड़ा। तभी से कहो न, सारे अंतराय हैं! खुद के स्वरूप के अंतराय पड़े, तभी से सारे अंतराय पड़ते ही जाते हैं।
अब वह जो दर्शन मोहनीय है, वह तो स्थूल चीज़ है। दर्शन मोहनीय को मिथ्यात्व कहते हैं। मोहनीय, अंतराय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये चार प्रकार की प्रबलता, इसी को मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्व से आगे बढ़े तो तीन पीसेज़ हो जाते हैं। समकित प्राप्त होने से पहले आगे बढ़े तो उसके फल स्वरूप, तीन पीसेज़ हो जाते हैं। उसमें से मिथ्यात्व मोह बनता है, मिश्रमोह बनता है और सम्यक्त्व मोह बनता है। इस तरह मोहनीय के तीन टुकड़े हो जाते हैं। अब मिथ्यात्व मोहनीय जब मंद हो जाता है, तब मिश्र मोहनीय में आता है। यह भी सच है और वह भी सच है। मोक्ष में जाने का रास्ता, ये सब भगवान के मंदिर वगैरह जो मार्ग हैं न, वह भी सच है