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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
कान से निकाल देता है । बिल्कुल भी नहीं सुधरा । पच्चीस साल तक धर्मस्थान पर गया लेकिन जैसा था उससे भी ज़्यादा बिगड़ गया, लबाड़ (झूठा) हो गया। सुधर गए हों, ऐसे तो बहुत कम लोग होंगे! हज़ार में से दो-पाँच लोग ही ऐसे निकलेंगे ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वहाँ पर ज्ञानावरण कर्म कैसे बंधता है?
दादाश्री : जहाँ पर ज्ञान दे रहे हों, वहाँ पर अगर प्रमाद रहे तो ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म दोनों बंधते हैं। वह कोई सब्ज़ी-भाजी की दुकान नहीं है! सब्ज़ी-भाजी की दुकान में प्रमाद रखो तो चलेगा।
प्रश्नकर्ता : धर्म का व्याख्यान सुनने जाएँ तो उससे बंध पड़ता है?
दादाश्री : हाँ, सबकुछ उल्टा ही हो गया है। इसलिए उल्टा हो गया यह सब और वहाँ से नीचे उतरकर फिर 'सेठ, झाड़ क्यों दिया ? लेकर जाना था न घर पर!' अरे, ये ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय बढ़ गए। कौन से जन्म में भोगोगे? ज़रा तो समझो ! भगवान की बात तो समझो ! एकाध अक्षर समझो न!
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वही सब से बड़ा ज्ञानावरण
सामनेवाला उम्र में बड़ा हो तो भी कहेगा ' आप समझते नहीं हो, आप में अक़्ल नहीं है।' इनकी अक़्ल नापने निकले ! ऐसा तो कहीं बोला जाता होगा? फिर झगड़े ही होंगे न ! लेकिन ऐसा नहीं बोलना चाहिए, सामनेवाले को दुःख हो ऐसा, कि 'आप में अक़्ल नहीं है।' सामान्य लोग तो नासमझी के मारे ऐसा बोलकर ज़िम्मेदारी उठाता है लेकिन जो समझदार होता है, वह तो खुद ऐसी ज़िम्मेदारी उठाएगा ही नहीं न ! सामनेवाला उल्टा बोले लेकिन खुद सीधा बोलेगा। सामनेवाला नासमझी में भले ही कुछ भी पूछे लेकिन वे खुद उल्टा नहीं बोल सकते। ज़िम्मेदार हैं खुद।
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'आप समझते नहीं हैं' ऐसा भी नहीं कह सकते । हमें तो ऐसा कहना चाहिए कि ' भाई, ज़रा सोचो तो सही ! आप ज़रा सोचो तो सही !' बाकी