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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
है। निर्वाण अर्थात् क्या? प्रकृति को देखा और जाना, उसके बाद फिर प्रकृति नहीं रहती। फिर सिद्ध दशा उत्पन्न हुई, वहाँ पर निर्वाण कहलाता है। लोग इस निर्वाण शब्द का उपयोग कहीं भी कर लेते हैं। इस निर्वाण शब्द का जो अर्थ है, उसका घात करते हैं। जिन्होंने निर्वाण प्राप्त किया है न, उन्हीं लोगों के मुँह से निकला हुआ शब्द है और वे ही इसे समझ सके हैं जबकि दूसरे लोग बोलते ज़रूर हैं, लेकिन समझे तो सिर्फ वही लोग हैं कि निर्वाण क्या है?
प्रश्नकर्ता : तब तक भरत क्षेत्र में एक और जन्म लेना पड़ेगा। ऐसा होगा न?
दादाश्री : ऐसा सब नहीं सोचना है। इन सब विचारों में नहीं पड़ना है। इससे आगे जाकर प्रकृति को निहारो, प्रकृति क्या कर रही है उसे देखो, उसे निहारो।
खरा पुरुषार्थ तो, खुद पुरुष हो जाने के बाद प्रकृति को देखता रहे, तो वह खरा पुरुषार्थ है। प्रकृति को देखता ही रहे, बस। एक जन्म में मोक्ष में चला जाएगा, अगर इस तरह निहारना आ गया तो।
वह है अंतिम प्रकार की स्वरूप भक्ति प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति अब अच्छी नहीं लगती, प्रकृति दिखती है और अब वह प्रकृति ऐसी हो गई है कि जो गिननेवाला था, वही अब भूल जाता है।
दादाश्री : पहले प्रकृति दिखाई देती थी? प्रश्नकर्ता : बिल्कुल नहीं दादा।
दादाश्री : कैसा आत्मा प्राप्त हुआ है! ओहोहो! जो प्रकृति को निहारता है। प्रकृति को निहारता है। जो खुद प्रकृतिरूप में रहकर भटका है, वही खुद की प्रकृति को निहारता है। अब क्या है? जो ज्ञाता थी, वही ज्ञेय बन गई। जो दृष्टा थी, वह दृश्य बन गई।