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[१.१०] प्रकृति को निहार चुका, वही परमात्मा
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प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा हूँ।
दादाश्री : तो फिर कर्तापन छूट गया। 'मैं चंदूभाई हूँ' वही कर्तापन था। अतः कर्तापन छूट गया। अब आप में कर्तापन नहीं रहा, आपको कर्म नहीं बंधेगे।
प्रश्नकर्ता : दादा, इसे पचाने में देर लगी है। बाकी सभी को पच गया है, मुझे पचाने में देर लगी है।
दादाश्री : ऐसा है न कि आज, ऐसी बात कभी-कभी ही निकलती है, ऐसी बातों का जैसे-जैसे भोजन लोगे, उतना ही ठीक होता जाएगा। वे पचती जाएँगी। ऐसी बातें हुई ही नहीं हैं न! ऐसे संजोग मिलने चाहिए न! और आपके तो कैसे संयोग! उतरना उनके वहाँ, रहना उनके यहाँ और खाना उनके हाथों से! तब फिर बात बन ही जाएगी! ऐसे संयोग, ऐसे क्षण कई दिनों में कभी आते हैं। कभी-कभी ऐसा आ जाता है न तो वह ऑलराइट हो जाता है, लेकिन आप तो आज्ञा पकड़ कर रखो तो बहुत हो गया। आज्ञा नहीं छोड़ोगे तो कोई परेशानी नहीं आएगी।
मात्र प्रकृति को ही निहारते रहो प्रश्नकर्ता : खुद की प्रकृति अब दिखने लगी हैं, सबकुछ दिखने लगा है। ये मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार दिखते हैं, लेकिन इन्हें स्टडी कैसे करना है? प्रकृति के सामने ज्ञान को किस तरह काम करना चाहिए? किस तरह जागृति रहनी चाहिए? उसकी स्टडी कैसे की जाए?
दादाश्री : प्रकृति की स्टडी की जाए न तो हमें पता चल ही जाएगा कि प्रकृति ऐसी ही है अभी तक। प्रकृति का हमें पता चल ही जाएगा कि यह प्रकृति ऐसी ही है। और अगर कम पता चला है, तो धीरे-धीरे बढ़ती ही जाएगी दिनोंदिन लेकिन अंत में फुल हो जाएगी। हमें सिर्फ क्या करना है? 'ये चंदूभाई क्या कर रहे हैं?' उसे हमें देखते रहने की ज़रूरत है! वही शुद्ध उपयोग है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, कई बार ऐसा होता है न कि ऐसे देखते