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[१२] प्रकृति, वह है परिणाम स्वरूप से
दादाश्री : ये जो नए कर्म बनते हैं, वे तो अपने अहंकार और आज की अपनी समझ और ज्ञान पर आधारित हैं । कर्म उल्टे भी बाँध सकता है और सीधे भी बाँध सकता है और प्रकृति हमें वैसे संयोगों में रखती है। ऐसी समझ तो है ही नहीं न किसी में ! उसे तो ऐसा ही लगता है कि बाहर से मिल रहा है यह सबकुछ।
इसमें राग-द्वेष किसे हैं?
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प्रश्नकर्ता : आत्मा राग-द्वेष रहित है तो प्रकृति राग-द्वेष रहित किस तरह से हो सकती है? कब हो सकती है? उसका क्रम क्या है ?
दादाश्री : स्थूल प्रकृति राग-द्वेषवाली है ही नहीं। वह तो पूरणगलन (चार्ज होना, भरना - डिस्चार्ज होना, खाली होना) स्वभाव की है? यह तो, अहंकार राग-द्वेष करता है। उसे जो अच्छा लगता है उस पर राग करता है और अगर अच्छा नहीं लगता तो द्वेष करता है। प्रकृति तो अपने स्वभाव में है। सर्दी के दिनों में ठंड होती है या नहीं होती?
प्रश्नकर्ता : होती है।
दादाश्री : वह उसे अच्छी नहीं लगे तो उसे द्वेष होता है। कुछ लोगों को इसमें मज़ा आता है । नहीं आता ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, ठीक है ।
दादाश्री : ऐसा ही है । प्रकृति को सर्दी के दिनों में ठंड लगती है, गर्मियों के दिनों में गर्मी लगती है । अर्थात् ये सारे राग-द्वेष अहंकार ही करता है । अहंकार जाए तो राग-द्वेष चले जाते हैं ।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान देने के बाद प्रकृति ऑटोमेटिक सहज होती ही जाती है न?
दादाश्री : हाँ, ज्ञान मिलने के बाद प्रकृति जुदा हो गई लेकिन डिस्चार्ज के रूप में रही हुई है। वह डिस्चार्ज होती रहती है धीरे-धीरे। जो चार्ज हो चुकी है, वही डिस्चार्ज होती रहती है । 'जीवित ' अहंकार के बिना