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आप्तवाणी-८
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की इसीलिए तो उत्पन्न हुआ है। और फिर से वापस प्रतिष्ठा करता ही रहता है कि 'देह मैं हूँ, चंदूभाई मैं हूँ, इस स्त्री का पति मैं हूँ, इन बच्चों का बाप भी मैं ही हूँ, इनका भाई भी मैं ही हूँ।' ऐसे कितने ही प्रकार के मैं, मैं, मैं, मैं.....
ज्ञानी तो सहज ही सिद्धांत प्रकाशमान करें प्रश्नकर्ता : ये सब लोग जिसे आत्मा कहते हैं, वह प्रतिष्ठित आत्मा को ही न?
दादाश्री : हाँ, प्रतिष्ठित आत्मा को ही आत्मा मानते हैं। लेकिन वह 'रोंग बिलीफ़' है। अब यह उसे पता ही नहीं होता न! और वह तो प्रतिष्ठित
आत्मा को यही मेरा आत्मा है' ऐसा मानकर आगे बढ़ता है। मोह के एकएक परमाणु को कम करते-करते आगे बढ़ना, वह पूरा ही क्रमिक मार्ग है। क्रमिक मार्ग में प्रतिष्ठित आत्मा' को आत्मा कहते हैं, यहाँ अक्रम मार्ग में मुल आत्मा को आत्मा कहते हैं। यानी कि क्रमिक मार्ग में और अक्रम मार्ग में, दोनों में कहने की दृष्टि में फ़र्क है। क्रमिक मार्ग में वे लोग सच ही कहते हैं, उस आत्मा में वेदकता होती ही है। यह वेदकता वगैरह आत्मा के इतने गुण हैं' क्रमिक मार्ग में ऐसा कहते हैं, जब कि अपने अक्रम मार्ग में वह वेदकता और बाकी का सब प्रतिष्ठित आत्मा में हैं, ऐसा कहा है। इस क्रमिक मार्ग में, हम जिसे प्रतिष्ठित आत्मा कहते हैं, उसे वे लोग व्यवहार आत्मा कहते हैं और उस व्यवहार आत्मा को ही मूल आत्मा मान बैठे हैं। अत: उसे ही स्थिर करना है, उसे ही कर्मरहित करना है', ऐसा मानते हैं। अर्थात् यह आत्मा कर्म से बँधा हआ है और उसे ही कर्मरहित करना है, ऐसा मानते हैं। बाकी, मूल आत्मा ऐसा नहीं है। मूल आत्मा तो कर्म से मुक्त ही है। सिर्फ 'तुझे' इसका भान नहीं हुआ है, 'तुझे' वह भान हो जाए, उसीकी ज़रूरत है।
हम क्या कहना चाहते हैं कि 'तुझे' इसका भान नहीं हुआ है। तुझे यह भ्रांति है। जो 'आत्मा' नहीं है, वहाँ पर 'तू' आरोप करता है कि यह 'आत्मा' है और जहाँ पर 'आत्मा' है, वहाँ उसका 'तुझे' भान