________________
आप्तवाणी-८
३१५
'व्यवहार आत्मा', को माना गया 'निश्चय आत्मा'
प्रश्नकर्ता : व्यवहारिक आत्मा और निश्चय आत्मा, इन दोनों के अलग-अलग गुण हैं?
दादाश्री : वे अलग ही होते हैं न! निश्चय आत्मा अर्थात् मूल आत्मा। प्रश्नकर्ता : इसमें आत्मा एक ही और गुण अलग हैं, ऐसा है?
दादाश्री : ऐसा नहीं है। एक आदमी छिंवारों का बड़ा ऐजेन्ट है, सभी लोग उसे कहते हैं 'ये छिंवारेवाले सेठ हैं।' लेकिन कोर्ट में वे वकील माने जाते हैं। वे वकालत करेंगे तो वकील माने जाएँगे न? उसी तरह 'आप' अगर व्यवहारिक कार्य में मस्त हो तो 'आप' 'व्यवहारिक आत्मा' हो और निश्चय में मस्त हो, तो 'आप' 'निश्चय आत्मा' हो। मूल तो आप वही के वही हो लेकिन किस कार्य में हो, उस पर आधारित है।
इस तरह व्यवहारिक आत्मा को इन लोगों ने निश्चय आत्मा मान लिया। बोलते ज़रूर हैं कि व्यवहारिक आत्मा, लेकिन उनके ज्ञान में तो उसे निश्चय आत्मा ही समझते हैं। वे समझते हैं कि, 'जो आत्मा है वह यही आत्मा है और आत्मा नहीं होगा तो बोलेंगे किस तरह? चलेंगे किस तरह?' ये चलना-फिरना, बातचीत करना, स्वाध्याय करना, मैं पढ़ता हूँ और मुझे याद रहता है, इन सब के लिए कहेगा की 'यही आत्मा है। दूसरा कोई आत्मा है ही नहीं।' ऐसा वह समझता है। जब कि यह सब तो आत्मा की परछाई ही है। इस परछाई को पकड़ेगा तो करोड़ों जन्मों तक भी तू मूल आत्मा को नहीं ढूँढ पाएगा। अक्रम विज्ञान ने तो यह बताया है कि परछाई को किसलिए पकड़ते हो? इसके बावजूद भी क्रमिक मार्गवाली वह लाइन गलत नहीं है। लेकिन परछाई को ही आत्मा मानते हैं। आत्मा को आत्मा मानो और परछाई को परछाई मानो, मैं ऐसा कहना चाहता हूँ।
प्रश्नकर्ता : मान्यता में ही बड़ी भूल हुई है।
दादाश्री : मान्यता में भूल हो जाए तो सारी भूल ही है। फिर बचा ही क्या?