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आप्तवाणी-८
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है। और 'अहंकार' खत्म हो जाए तो 'आप' 'आत्मा' हो गए और मुक्ति के लायक हो गए। अहंकार से तो यह पूरा संसार खड़ा है और अहंकार से ही राग-द्वेष हैं और 'अहंकार' से ही 'आप' कर्म के कर्ता हो। जब 'अहंकार' नहीं रहेगा, तब 'आपको' कर्म का कर्तापन नहीं रहेगा। अभी 'आप' कर्म के कर्ता हो, इसलिए भोक्ता हो। 'आपको' यह कर्तापन भ्रांति से उत्पन्न होता है।
जब तक सेठ ने शराब नहीं पी थी, तब तक कुछ भी उल्टा नहीं बोल रहे थे, लेकिन जब से शराब पी, तब से उल्टा-सीधा बोलने लगे।
और इसमें किसीको गाली दे दें, तो वह कर्म दारू के नशे में किया कहा जाएगा, भ्रांति में किया है, ऐसा कहा जाएगा। लेकिन फिर भुगतना तो पड़ेगा न? वह फिर छोड़ेगा नहीं न? कि आप तो मुझे शराब पीकर गालियाँ दे रहे थे, ऐसे झगड़ा करेगा न? इस तरह से ये कर्म भुगतने पड़ते हैं। और जब तक 'खुद' कर्म का कर्ता बनता है, तब वह 'खुद' कर्म को आधार देता है, 'मैं कर रहा हूँ'। अहोहोहो! संडास जाने की शक्ति नहीं है और क्या कहता है कि 'मैं कर रहा हूँ यह सब।' इसीसे ये सारे कर्म बंधते हैं और फिर चारों गतियों में भटकता रहता है। जब 'ज्ञानी' के पास से बात को समझ ले, तो भटकना बंद हो जाएगा।
अशुद्धता की उत्पत्ति किसमें? प्रश्नकर्ता : कितनी ही सावधानी रखने के बावजूद आत्मा में से अशुद्ध पर्याय क्यों उठते हैं?
दादाश्री : लेकिन इससे ‘आपको' क्या फ़ायदा? प्रश्नकर्ता : हमें कर्म बंधन होता है न?
दादाश्री : तो 'आपमें' से अशुद्ध पर्याय उठेंगे तो 'आपको' ही बंधन होगा न! 'आत्मा' में से उठते ही नहीं। आत्मा में अशुद्ध पर्याय होते ही नहीं। यानी अगर वस्तुस्थिति में बात को समझना हो तो ये अशुद्ध पर्याय और शुद्ध पर्याय वगैरह 'आपमें' ही उठते हैं।