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आप्तवाणी-८
अभी तक तो तत्व क्या है वही नहीं जानते और आत्मा हूँ, शुद्धात्मा हूँ' बोलते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र', ऐसा सब बोलते हैं, लेकिन इसमें आत्मा क्या है? वह पता ही नहीं चलता न?
प्रश्नकर्ता : तो 'मैं कुछ भी नहीं जानता', ऐसा रखना चाहिए?
दादाश्री : बस, वही अक्लमंदी का वाक्य है कि 'मैं कुछ भी नहीं जानता।'
वीतराग दृष्टि से, विलय होता है संसार ज्ञान तो दृष्टि है। यह चमड़े की आँखों की दृष्टि है और दूसरी ज्ञानदृष्टि है, उससे देखना आ गया तो काम निकल जाएगा न! ये चमड़े की आँखें नहीं हैं? इनसे तो ऐसा दिखता है कि 'ये मेरे ससुर हैं, ये मेरे मामा हैं, ये फूफा हैं। ये सभी बातें सच होंगी? ये सभी बातें करेक्ट हैं? कोई हमेशा के लिए ससुर रहता है कहीं? जब तक डायवोर्स नहीं लिया हो तब तक ससुर, डायवोर्स ले उसके दूसरे दिन वह संबंध खत्म हो जाता है न! अर्थात् ये सभी टेम्परेरी एडजस्टमेन्टस है! बाकी, दृष्टि तो 'ज्ञानीपुरुष' बदल देते हैं।
प्रश्नकर्ता : दृष्टि को बहिर्मुख से अंतर्मुख कर देते हैं।
दादाश्री : नहीं। वैसी अंतर्मुख दृष्टि नहीं। अभी तो आपकी दृष्टि अंदरवाली भी है ही। लेकिन आपकी दृष्टि बदल देते हैं, तो फिर बाहर भी आत्मा दिखता है। जैसा अंदर है, वैसा बाहर भी आत्मा नहीं है? लेकिन आपकी वह दृष्टि बदल देते हैं! बाकी हमें तो एक मिनट के लिए भी यह संसार याद नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : हमसे एक मिनट भी संसार भूला नहीं जाता।
दादाश्री : यानी कि पूरे डिज़ाइन में ही फ़र्क है। पूरी दृष्टि में ही फ़र्क है, और कुछ भी नहीं। आप यह देख रहे हो, मैं दूसरी तरफ़ ऐसे देख रहा हूँ। पूरी दृष्टि ही अलग है। इसमें और कुछ भी प्रयत्न