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आप्तवाणी-८
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दादाश्री : नहीं, नहीं। वह तो, कोई ज्ञानी रहेंगे, दो सौ-पाँच सौ वर्ष तक कुछ न कुछ स्फुरित होगा। हर एक में कभी न कभी 'प्रकाश' होता ही रहेगा, तो वैसे कोई होंगे तो सभी के काम आएँगे। बाकी, ऐसे के ऐसे शुद्धात्मा नहीं हुआ जा सकता।
समरण से शुद्धात्मा नहीं है साध्य एक व्यक्ति ने कहा, 'मैं शुद्धात्मा हूँ, ऐसा याद करता रहता हूँ।' तब मैंने उसे कहा, 'अरे, याद करता रहता है तो भी शुद्धात्मा प्राप्त नहीं हुआ?' तब कहने लगा, 'नहीं। और दूसरे दिन तो मुझे मन में ऐसा हुआ कि वह कौन-सा शब्द था? कौन-सा शब्द, कौन-सा शब्द, तो चार घंटे तक वह शब्द याद ही नहीं आया।' यानी कि शब्द ही भूल जाता है। उस समरण से (नामस्मरण) कुछ लक्ष्य में नहीं बैठता। ऐसे समरण करने के बजाय 'वाइफ' का समरण करना अच्छा कि पकोड़े, जलेबी बनाकर तो देगी। ऐसे गलत समरण दे-देकर तो, न देवगति में गए, न ही यहाँ पर अच्छा सुख-वैभव मिला, यानी ऐसे भी भटका दिया और वैसे भी भटका दिया। यहाँ पर अगर सुख-वैभव मिला हो तो भी समझें कि ठीक है।
ये तो कहेंगे, 'समरण दे रहे हैं, आप समरण करते रहना।' अरे भाई, अगर वह समरण भूल जाऊँ तब मुझे क्या करना चाहिए? और समरण तो कब रहता है कि जिस पर राग होता है न, तो अपने आप ही उसका समरण रहा करता है। या फिर जिस पर बहुत ही द्वेष हो, जिस पर बहुत चिढ़ हो, वह याद आता रहता है। यानी बहुत राग हो तो वह याद आता रहता है, उसका समरण रहता है।
और समरण का फल संसार, भटकते ही रहना। आपको समझ में आई यह बात? समरण का अर्थ समझ में आया न? यानी कि आत्मा सतत हाज़िर रहकर अपने आप ही वैसा बोलने लगना चाहिए। हम बुलवाएँ और वह बोले, ऐसा नहीं। अपने आप ही होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह 'शुद्धात्मा हूँ' ऐसा अंदर से बोलना शुरू हो जाता है या नहीं?