________________
जगत् का अधिष्ठान क्या है? उसे 'एक्जेक्ट' रूप से बताया हो, तो संपूज्य श्री दादाश्री ने! जगत् का अधिष्ठान 'प्रतिष्ठित आत्मा' है ! मूल आत्मा तो इसमें संपूर्ण अकर्ताभाव से, उदासीनभाव से ही रहा हुआ है। मात्र दर्शन शक्ति आवृत होने से, विभाविक दृष्टि होने से जगत् खड़ा हो गया है!
जो मूल निश्चय आत्मा है, वह शुद्धात्मा है और व्यवहार में माना हुआ आत्मा, वह प्रतिष्ठित आत्मा है। 'मैं चंदूलाल हूँ', 'इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ' इस प्रकार ‘रोंग बिलीफ़' से प्रतिष्ठा करने से प्रतिष्ठित पुतला खड़ा हो गया है, जो फल देता ही रहता है। फल चखते समय अज्ञानता से फिर वापस नई प्रतिष्ठा करता है और इस प्रकार साइकल चलती ही रहती है।
जैसे शराब के अमल मनुष्य वास्तविकता को भूलकर 'मैं राजा हूँ' ऐसा बोलने लगता है, वैसे ही अहंकार के अमल में 'मैं चंदूलाल हूँ, इसका पति हूँ, बाप हूँ...' ऐसा तरह-तरह का बोलता है! वास्तव में तो खुद परमात्मा ही है, चौदह लोकों का धनी ही है, परन्तु 'रोंग बिलीफ़' से वह खुद स्त्री का पति बन बैठता है और खुद का पद खो बैठता है, 'ज्ञानीपुरुष' उसे निजपद का भान करवाते हैं, अहंकार निर्मूल कर देते हैं, पिछले सभी भ्रांत असर खत्म हो जाएँ, तब उसे पूर्णपद प्राप्त होता है! वर्ना जब तक अहंकार है, तब तक बुद्धि के 'विज़न' से दिखता है, और आत्मा का कर्ताभोक्तापन माना जाता है। ज्ञान से देखने पर 'आत्मा कुछ भी नहीं करता', ऐसा 'फ़िट' हो जाता है। 'रोंग बिलीफ़' खत्म हो जाए, तो वास्तविकता दृश्यमान होती है। बदली हुई बिलीफ़ ही संसार उपार्जन का, प्रकृति की उत्पत्ति का कारण है। मूल आत्मा इसमें सदा असंग-निर्लेप ही रहा है!
'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' से प्रकृति खड़ी होती है, उसमें किसीका कर्तापन नहीं है। प्रकृति इफेक्टिव है और उसका असर 'खुद' पर होता है, परन्तु जब तक ‘रोंग बिलीफ़' बैठी हुई है, तभी तक!
'राइट बिलीफ़' से 'रोंग बिलीफ़' का छेदन होता है और 'राइट
३०