________________
आप्तवाणी-८
२६१
दादाश्री : चारित्र में आ जाए, उसे आत्मा वर्तन में आया, ऐसा कहा
जाता है।
प्रश्नकर्ता : और अनुभव ?
दादाश्री : अनुभव तो, वह तो पहले हो ही चुका होता है न उसे । प्रश्नकर्ता : अनुभव के बाद में फिर वर्तना में आता है न?
दादाश्री : हाँ। अनुभव पहले हो चुके होते हैं, फिर उसे बरतता है
I
शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति 'मैं' को ही
प्रश्नकर्ता : शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने का निर्णय कौन करता है? आत्मा करता है?
दादाश्री : आत्मा खुद शुद्ध ही है । जिसे खुजली चलती है वह खुजलाता है, बाकी कौन खुजली करे? जिसे खुजली चलती है, वह खुजलाता है। तो यह सब अहंकार करता है, 'मैं' करता है । 'शुद्ध स्वरूप करना है', ऐसे सब विचार कौन करता है? अहंकार करता है।
इस भौतिक की तरफ़ का व्यापार कर चुके, थक गए अब । इसलिए इस तरफ़ का व्यापार करना चाहते हैं और ऐसे करते-करते फिर खुद का रिलेटिव अस्तित्व भी खो देंगे। खुद मूल स्वरूपी होकर खड़ा रहेगा । अज्ञान है, तभी तक अहंकार
प्रश्नकर्ता : आत्मा की तरफ़ का विचार नहीं आए तो आत्मा की तरफ़ ले जानेवाली प्रवृत्तियाँ भी नहीं होतीं न?
दादाश्री : हाँ, नहीं होतीं ।
प्रश्नकर्ता : तो शुरूआत में, विचार में, अहंकार भी थोड़ा-बहुत रहेगा ही न, कि 'अब ऐसा करूँ, वैसा करूँ ।'
दादाश्री : हाँ, अहंकार तो अंत तक रहेगा ही। जब तक अज्ञान है तब तक अहंकार रहेगा ।