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आप्तवाणी-८
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अरूपी को अरूपी का साक्षात्कार
प्रश्नकर्ता : आत्मा अरूपी है, तो उसका साक्षात्कार किस तरह से होता है?
दादाश्री : ऐसा है न, साक्षात्कार करनेवाला भी 'खुद' अरूपी है। वह साक्षात्कार करनेवाला रूपी नहीं है। अर्थात् स्वभाव से स्वभाव मिल जाता है।
प्रश्नकर्ता : जब साक्षात्कार होता है, तब क्या होता है ?
दादाश्री : जागृति एकदम बढ़ जाती है। कृपालुदेव ने क्या कहा है,
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वर्ते निज स्वभावनुं, अनुभव-लक्ष-प्रतीत,
वृत्ति वहे निजभावमां, परमार्थे समकित।'
अर्थात् जब साक्षात्कार होता है न, तब वृत्तियाँ फिर वापस लौटने लगती हैं और निज स्वभाव में रहती हैं । यदि वृत्तियाँ बाहर चली जाएँ, फिर भी तुरन्त वापस आ जाती हैं, वर्ना यह तो, वृत्तियों को वापस बुलाना हो तो भी आती नहीं और कुछ तो घर के बाहर ही पड़ी रहती हैं।
अनुभव भिन्न! साक्षात्कार भिन्न
प्रश्नकर्ता : आत्मानुभव और आत्मसाक्षात्कार, ये दो शब्द जो अलग-अलग हैं, इनमें 'डिफरेन्स' क्या है ?
दादाश्री : साक्षात्कार तो अलग वस्तु है और अनुभव तो, जब आगे बढ़े, तब अनुभव कहलाता है ।
प्रश्नकर्ता : तो साक्षात्कार किसे कहते हैं ये लोग?
दादाश्री : 'यह' ज्ञान देते हैं न, उसे साक्षात्कार कहते हैं I
प्रश्नकर्ता : तो यह साक्षात्कार, वह प्रतीति से भी नीचा हुआ ?
दादाश्री : जब साक्षात्कार होता है, तब 'उसे' प्रतीति बैठती है । नहीं तो ‘मैं चंदूभाई हूँ, ‘उसकी' यह प्रतीति जाती ही नहीं न !