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आप्तवाणी
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दादाश्री : हाँ, आत्मा की बात याद करते ही किसीको पानी के फव्वारे जैसा उड़ता है, किसीको रौशनी दिखती है, और भी कुछ होता है।
प्रश्नकर्ता : फुंवारे उड़ने की बात नहीं है, लेकिन यह तो हमें अंदर आनंद-आनंद रहा करता है।
दादाश्री : हाँ, लेकिन वह तो एक प्रकार की ऐसी सब कल्पनाएँ होती रहती हैं अंदर । लेकिन अगर उस तरफ़ का विचार करें तो भी इतना अधिक आनंद होता है, तो उस तरफ़, वहाँ पर पहुँच जाएँगे तो कितना आनंद होगा?
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एक व्यक्ति किसी सरल, स्वच्छ हृदय के संत के पास गए थे। फिर आकर मुझसे कहने लगे कि, 'मुझे तो अनुभव हुआ है।' मैंने कहा, 'किस चीज़ का अनुभव हुआ है ।' तब कहने लगे, 'आत्मा की अनुभूति हुई है । ' मैंने कहा, आत्मा की परछाई तक नहीं देखी किसीने । भले ही आत्मा त नहीं पहुँचे लेकिन आत्मा की परछाई, जिस तरह किसी मनुष्य के पीछे उसकी परछाई पड़ती है न, और परछाई पर हम पैर रखें, उसी प्रकार से यदि आत्मा की परछाई में भी पहुँच जाएँ तो समकित हो जाएगा। यानी कि ये तो आत्मा की परछाई तक भी नहीं पहुँचे हैं।
अपने हिन्दुस्तान के कितने ही लोग ऐसा कहते हैं कि अनुभूति हुई है । अब अनुभूति हो चुकी हो तब तो भगवान ही हो गया, वह कृष्ण भगवान ही कहलाएगा और इस तरह से जो अनुभूति कहते आए हैं, उसमें सब अंधाधुंध बात ही है और कुछ मिला नहीं ।
मैंने उनसे कहा कि, 'आप अनुभूति किसे कहते हो?' तब बोले, 'मुझे वह मालूम नहीं है । लेकिन मुझे इतना लगता है कि यह जो आनंद होता है, उस घड़ी आत्मा का ही आनंद होता है ।' तब मैंने कहा, 'नहीं है वह आत्मा का आनंद, आत्मा तो प्राप्त किया ही नहीं। आत्मा को सुना ही नहीं, अरे! परछाई भी नहीं देखी है । यह तो सब मन का आनंद है। संयोग मिल जाएँ, तब मन का आनंद उत्पन्न होता है ।' तब उन्होंने कहा, 'जब आनंद होता है, तब हम तो ऐसा समझते हैं कि आत्मा का आनंद