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आप्तवाणी-८
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ऐसे लोगों के साथ में रहना और दिन बिताना और कर्म नहीं बँधे इस प्रकार से रहना, वैसे किस तरह से रह सकते हैं? वह सारी विद्या मैं
आपको सिखा दूँगा। लेपायमान हों नहीं, ऐसी विद्या मैं बता दूँगा। वर्ना तो यह दुनिया तो लेपायमान ही है। जैसे कमल पानी में रहकर भी निर्लेप रहता है न, उसी तरह की निर्लेपता आपको बता दूंगा।
____ अतः आत्मा कहाँ से जाना जा सकता है? 'ज्ञानीपुरुष' के पास से। इन शास्त्र के ज्ञानियों के पास आत्मा नहीं होता। यदि आत्मा प्राप्त हुआ होता तो उन्हें समकित हो चुका होता और समकित अर्थात् इस संसार में रहने के बावजूद संसार स्पर्श नहीं करे, और ऐसा तो 'ज्ञानीपुरुष' की कृपा से प्राप्त होता है।
सर्वांगी स्पष्टत समझ से उलझन जाए कुछ तो उपदेश में सिर्फ आत्मा ही है, ऐसा कहते हैं। कान में ऐसे फूंक मारकर बोलते हैं कि बोल, 'मैं आत्मा हूँ।' अरे, लेकिन आत्मा यानी क्या? और अगर 'मैं आत्मा हूँ', तो यह बाकी का सब क्या है? वापस ऐसा प्रश्न उत्पन्न नहीं होगा? अपने यहाँ तो क्या कहा है कि, “बाइ रिलेटिव व्यू पोइन्ट 'यह' और बाइ रियल व्यू पोइन्ट 'यह', इस तरह से दोनों बोलना चाहिए।" उन लोगों के लिए 'पोइन्ट' जैसा कुछ नहीं है, दोनों तरफ़ का सफोकेशन रहता है। लेकिन वैसी फूंक मारी हो, तो थोड़ा-बहुत रहता है। लेकिन वापस उलझ जाता है, रेल्वे लाइन 'पेरेलल' नहीं होनी चाहिए? या टेढ़ी-मेढ़ी चलेगी? भले ही अगर तुझे टेढ़ी चलानी हो तो टेढ़ी चलाना, गोल चलानी हो तो गोल चलाना, लेकिन 'रियल' और 'रिलेटिव' दोनों लाइनें 'पेरेलल' रखना।
रिलेशन में भूला 'खुद' खुद को चंदूभाई तो सिर्फ व्यवहार चलाने के लिए नाम है। यह तो 'खुद' 'रियल' था, वह 'रिलेटिव' बन गया। बहुत सारे 'रिलेशन' हो जाने से खुद
को भ्रांति उत्पन्न हो गई। और फिर कहता है कि 'मैं चंदूभाई हूँ', इसे 'इगोइज़म' कहते हैं।