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आप्तवाणी-८
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दादाश्री : यानी कि सोने में आनंद नहीं है। तो यह आनंद कल्पना से खड़ा करते हैं कि इसमें आनंद है और इसमें मज़ा है, उससे फिर ऐसा भासित होता है। जिससे मूल सच्चा आनंद मारा जाता है। मुझे वह 'डायरेक्ट' सच्चा आनंद आता है। हम निरंतर सच्चे आनंद में रहते हैं, और वह स्वाभाविक आनंद आता है, नेचरल, जो खुद का है और यह सारा आनंद तो कल्पित है और यह सुख भी कल्पित है और दुःख भी कल्पित है।
स्वभाव की भजना से, स्वाभाविक सुख
यानी कि हम 'आत्मा' को जुदा कर देते हैं, वह इसलिए ताकि 'आप' फिर स्वाभाविक सुख में आ जाओ। फिर आपको चिंता, उपाधि नहीं होगी, क्योंकि चिंता होती किसलिए है? कि 'मैं ही चंदूभाई हूँ' और 'मैं ही करता हूँ' ऐसा कहते हो, इसलिए चिंता होती है, मनुष्य कुछ कर सकता है क्या? यह करता है या 'इट हेपन्स' है?
प्रश्नकर्ता : ‘इट हेपन्स' यानी कि अपने आप कुछ नहीं होता, ऐसा?
दादाश्री : हाँ, बस। वह इसे खुद अपने आप करने जाता है और उससे भ्रांति उत्पन्न होती है और कर्ता बने, तो चिंता उत्पन्न होती है। आपको समझ में आया न? खुद है तो अकर्ता, लेकिन कर्तापद धारण किया है
और कर्तापद धारण हुआ, उससे भोक्तापद उत्पन्न हुआ, करने गया इसलिए भोक्ता बना। और इसीलिए पूरे दिन चिंता, उपाधि और कलह! फिर कोई कुछ अपमान करे, तब भी दुःख होता है।
यानी कि 'खुद' 'खुद के स्वभाव' में आए, इसके लिए 'यह' ज्ञान देना है। उसके बाद, आत्मा, आत्मा में रहता है और अनात्मा, अनात्मा में रहता है। प्रत्येक जीव के अंदर चेतन है, वह प्रकाश ही देता है, और कुछ नहीं करता।
__यह जो विनाशी है, यह सारा 'रिलेटिव' है और 'ऑल दीज़ रिलेटिव्स आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्टस और यू आर रियल एन्ड परमानेन्ट।' यानी कि एक टेम्परेरी और एक 'परमानेन्ट' ये दोनों मिल गए हैं। उसका