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आप्तवाणी-८
तू ‘परमानेन्ट' नहीं है? तब कहता है, 'नहीं, मैं तो टेम्परेरी हूँ।' यानी कि यह सब 'इगोइज़म' का ही हंगामा है। इस 'इगोइज़म' को सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' ही निकाल सकते हैं। 'इगोइज़म', वह अज्ञान का परिणाम है और उससे यह संसार खड़ा है। हममें 'इगोइज़म' बिल्कुल खत्म हो चुका है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार और आत्मा यह सब इकट्ठा कैसे हो गया, यह अभी भी समझ में नहीं आता। दादाश्री : यह विशेष परिणाम ही है सिर्फ।
दुःख, आत्मा स्वरूप को है ही नहीं प्रश्नकर्ता : अब मनुष्य स्वर्ग में जाए या नर्क में जाए, परन्तु वहाँ पर भी आत्मा तो सुख या दुःख से तो अलग ही रहेगा न?
दादाश्री : आत्मा तो अलग ही रहता है, लेकिन उससे हमें क्या फ़ायदा? जब तक अहंकार है तब तक सुख और दुःख भोगता है और दुःख उसे पसंद नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा को तो कुछ नहीं होता न, मेरा ऐसा पूछना था।
दादाश्री : ऐसा है न, आपके पास सोने की गिन्नी हो, तो उसे आप भले कहीं भी रख दो, फिर भी उस पर जंग नहीं लगेगा, लेकिन यदि वह गिन्नी खो जाए तो गिन्नी को दुःख नहीं होता, लेकिन आपको दुःख होता है या नहीं होता? उसी प्रकार आत्मा को कोई दुःख है ही नहीं। यह जो अहंकार है न उसे दु:ख होता है। यह अहंकार चला जाए तो आत्मा हो गया और अहंकार है तब तक वह आत्मा नहीं है।
प्रश्नकर्ता : इस उदाहरण में गिन्नी और मैं, दोनों अलग-अलग हैं न, लेकिन क्या इसमें भी ऐसे अलग-अलग ही होते होंगे?
दादाश्री : ये भी अलग ही हैं। लेकिन वह आपको दिखता नहीं है। इस गिन्नी का जिस तरह से अलग है न, उसी तरह हमें भी 'आत्मा' अलग दिखता है।