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आप्तवाणी
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और दर्शन का उपयोग होता है, उससे आनंद रहता ही है ! तो उनमें ज्ञानदर्शन के अलावा और कुछ है ही नहीं । वह स्वरूप ही पूरा ज्ञान स्वरूप है, दर्शन स्वरूप है। यानी हमने हाथ ऊँचा किया, तो दिखा उन्हें।
तो उन्हें भी वापस क्या होता है कि जो देखना है, उसकी भी फिर हानि-वृद्धि होती रहती है। रात हो जाए तो इस भाग में हानि होती है और दूसरे भाग में वृद्धि होती है, इस तरह से हानि - वृद्धि होती है । और अपने यहाँ सुबह के पाँच बजें, तब से ही ये लोग उन्हें दिखने लगते हैं, लेकिन वास्तव में वृद्धि कब दिखती है? दस, ग्यारह, बारह बजे बहुत कुछ दिखता है, अरे लोग सब घूम रहे होते हैं, ऐसे घूम रहे होते हैं, वैसे घूम रहे होते हैं, सब दिखता है। उन्हें देखना है और जानना है, ये दो ही, और गहराई में नहीं उतरना है कि यह चोरी करने निकला है क्या? उन्हें तो अगर कोई जेब काटते हुए भी दिखे, तो भी उन्हें तो देखना और जानना ही है ! विषय नहीं हैं उनमें, विषय अर्थात् 'सब्जेक्ट' नहीं हैं । यह कौन - सा विषय है ? तब कहते हैं कि जेब काटने का । यह विषय इन लोगों को जानना है, उन्हें तो कुछ भी नहीं है !
मैंने हाथ ऊँचा किया, तो वह सभी सिद्धों को ज्ञान में दिखता है । वे सिद्ध ज्ञेयों को जानते ही रहते हैं । इस जगत् में ज्ञेय और दृश्य दो ही वस्तुएँ हैं । ज्ञेयों को जानते रहते हैं और दृश्यों को देखते रहते हैं । उसका परिणाम क्या? कि अनहद सुख, सुख का अंत ही नहीं, वह स्वाभाविक सुख है।
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है।
स्वभाव से एक समान, लेकिन अस्तित्व से भिन्न
अब लोगों को क्या झंझट है? कि वहाँ पर एक क्यों नहीं है? अरे, एक है, लेकिन वह किस प्रकार से है? कि यहाँ पर पाँच लाख सोने की सिल्लियाँ हों, ढेर लाया हो तो उसे हमें क्या कहना पड़ता है कि यह सोना है? ऐसा नहीं कहते? कहते हैं न?
प्रश्नकर्ता : सोना भी कहा जाता है और सिल्ली भी कहा जाता