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आप्तवाणी-८
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है, इसलिए इसे द्वंद्व कहते हैं। जैसे फ़ायदा और नुकसान, ये सभी आमनेसामने दो शब्द होते हैं न, वे सभी द्वंद्व कहलाते हैं। यानी कि द्वैत है तो अद्वैत है। अतः वह द्वंद्व से पार नहीं गया है, वह अभी तक द्वंद्व में ही है। अद्वैत भी द्वंद्व कहलाता है, ऐसा आपको समझ में आया? जैसे फ़ायदानुकसान ये द्वंद्व कहलाते हैं, अच्छा-बुरा, सुख-दु:ख, ये द्वंद्व कहलाते हैं, उसी तरह से यह द्वैत-अद्वैत की जोड़ी भी द्वंद्व कहलाती है। जैसे कि जहाँ पर दया होती है, वहाँ पर निर्दयता अवश्य होती ही है। अतः यदि कोई दयालु व्यक्ति हो तो आपको समझना चाहिए कि ओहोहो! इनके अंदर निर्दयता भी है। इसी तरह से द्वैत और अद्वैत, वे द्वंद्व में है। वह द्वंद्वातीत दशा नहीं है। यानी कि जो 'मैं अद्वैत हूँ' कहते हैं, वे तो अभी तक द्वंद्व में ही हैं। उस द्वंद्व में तो फिर कितनी सारी परेशानी है? अद्वैतवाले को तो रात-दिन द्वैत की ही कल्पना आती रहती है कि 'यह द्वैत, यह द्वैत, यह द्वैत' पूरे दिन ऐसे करता रहता है। जैसे द्वैत उसे काट खानेवाला नहीं हो? यानी कि यह द्वैत और अद्वैत, ये तो द्वंद्व हैं। उससे भी परे जाना है।
द्वैत उसे कहते हैं कि 'मैं और कर्म, दोनों हैं', इसे द्वैत कहते हैं। जब कि अद्वैतवाले क्या कहते हैं कि 'मैं ही हूँ, कर्म जैसी चीज़ है ही नहीं', यानी कि वहाँ पर तो द्वैत या अद्वैत अकेला नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा द्वैताद्वैत है। आत्मा सिर्फ अद्वैत नहीं हो सकता और सिर्फ द्वैत भी नहीं हो सकता। वह संसारी की अपेक्षा से, इस व्यवहार के कनेक्शन' में आता है, तब वह द्वैत है और 'खुद' 'मूल स्वरूप' में रहे तो अद्वैत है। अतः जब हम 'खुद' 'अपने' खुद में रहते हैं, तब हम संपूर्ण अद्वैत होते हैं।
अद्वैत की अनुभूति कब? प्रश्नकर्ता : अद्वैत की अनुभूति होती है? किसे होती है?
दादाश्री : अद्वैत की अनुभूति हो सकती है। द्वैत की अनुभूति होने के बाद फिर अद्वैत की अनुभूति होती है। यह जो संसार है, वह द्वैत स्वभाववाला है। इसकी अनुभूति हो जाने के बाद अद्वैत की अनुभूति होती