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प्रश्नकर्ता: हाँ, पूरी-पूरी ।
दादाश्री : अद्वैत, वह आधारी है या निराधारी ?
प्रश्नकर्ता : निराधारी ।
आप्तवाणी
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दादाश्री : और द्वैत?
प्रश्नकर्ता : अद्वैत में आने के बाद फिर द्वैत है ही कहाँ ?
दादाश्री : अब ऐसा उल्टा सिखाते हैं कि 'द्वैत है ही कहाँ ?' और संसारी बात आए, कोई ज़रा जेब काट ले, उस घड़ी शोर मचाकर रख देता है। अरे, अब यह सारा द्वैत आया कहाँ से? वापस कहेगा कि, 'पुलिसवाले को बुलाओ, यह चोर है, इसने ही मेरी जेब काटी।' अरे, अभी कह रहा था कि 'द्वैत है ही कहाँ ?' तो यह द्वैत कहाँ से आया? आपमें भी निरा द्वैत ही है। इसमें मैं आपको भला-बुरा नहीं कह रहा हूँ, लेकिन यदि सच्ची बात समझनी हो तो अद्वैत ऐसा नहीं है । और तब तक सच्चा सुख, जो खुद के आत्मा का सुख है वह किस तरह से एक घड़ी के लिए भी पा सकेगा? आपकी समझ में आता है न?
प्रश्नकर्ता. द्वैत की अपेक्षा से अद्वैत है।
:
अद्वैत, वह निराधारी वस्तु नहीं है । द्वैत के आधार पर अद्वैत है। किसके आधार पर है, इतना आपको समझ में आता है?
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दादाश्री : हाँ। द्वैत के आधार पर यह अद्वैत है। और जो चीज़ किसीकी अपेक्षा से हैं, वे सभी सापेक्ष कहलाती हैं । और सापेक्ष कभी भी निरपेक्ष नहीं बन सकता। यानी कि इस अद्वैत का अर्थ लोगों ने निरपेक्ष किया है। बात को यदि समझे न तो हल आएगा।
प्रश्नकर्ता. : लेकिन हम तो निरपेक्ष में ही मानते हैं ।
दादाश्री : निरपेक्ष ही मानना चाहिए, लेकिन निरपेक्ष को समझना तो चाहिए न ?