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आप्तवाणी-८
जाता है, तब ‘मिकेनिकल' नहीं होता। लेकिन जब डिस्चार्ज होता है तब 'मिकेनिकल' बनता है। जब अच्छी तरह से जम जाता है फिर वह डिस्चार्ज स्वरूप बनता है, तब वह 'मिकेनिकल' बन जाता है। पहले 'मिकेनिकल' नहीं होता।
यहाँ पर उल्टे विचार करने लगे तब से मिश्रचेतन तैयार होने लगता है। वह फिर जम जाता है, फिर वह अगले जन्म में फल देता है, तब उस समय 'मिकेनिकल' कहलाता है। अभी ‘मिकेनिकल' नहीं कहलाता। मिश्रचेतन कुछ समय बाद 'मिकेनिकल' कहलाता है। पहले 'मिकेनिकल' नहीं कहलाता। जब वह डिस्चार्ज होने लगता है तब 'मिकेनिकल' कहलाता है, यह डिस्चार्ज होता हुआ चेतन है।
इगोइजम, फिर भी साधन के रूप में प्रश्नकर्ता : जिसे आप 'निश्चेतन चेतन' कहते हैं कि वह जिसकी अभिव्यक्ति जगत् में सब ओर दिखती है, वह 'निश्चेतन चेतन' ऐसा मानता है कि "चेतन' को हम समझ सकेंगे, पकड़ सकेंगे, बुद्धि के क्षेत्र में ला सकेंगे।" उनका यह दावा कितने अंश तक सच साबित हो सकता है?
दादाश्री : उनके पास इसके अलावा और साधन भी क्या है? इसके अंदर 'निश्चेतन चेतन' भले ही हो लेकिन अंदर 'इगोइज़म' है। वह 'इगोइज़म' काम कर रहा है। और 'इगोइज़म' हो तो वह प्राप्ति ज़रूर करेगा, वर्ना सिर्फ 'निश्चेतन चेतन' से 'चेतन' प्राप्त नहीं किया जा सकता।
वस्तुत्वतः 'मैं' क्या है? जगत् में अस्तित्व का भान जीवमात्र को है कि 'मैं हूँ।' लेकिन वस्तुत्व का भान नहीं है कि मैं क्या हूँ?' इसीसे इस जगत् में भ्रांति चल रही है। जब मैं क्या हूँ', ऐसा भान हो जाए तब वस्तुत्व का भान हो गया, ऐसा कहा जाएगा। और वस्तुत्व का भान हो जाए तो पूर्णत्व फिर अपने आप होता ही रहेगा। वस्तुत्व का भान भेदविज्ञान से होता है। जड़ और चेतन का भेद डाल दिया जाए, तब खुद के वस्तुत्व का भान होता है।