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तमाम शास्त्रों का, साधकों का, साधनाओं का सार एक ही है कि खुद के आत्मा का भान, ज्ञान प्राप्त कर लेना है । 'मूल आत्मा', तो शुद्ध ही है मात्र 'खुद' को रोंग बिलीफ़ बैठ गई है, प्रकट 'ज्ञानीपुरुष' के पास यह मान्यता छूट जाती है। जो कोटि जन्मों तक नहीं हो पाता, वह 'ज्ञानी' के पास से अंत:मुहूर्त में प्राप्त हो सकता है !
लाखों प्रश्न विकल्पियों के या जिज्ञासुओं के लाखों प्रश्न आते हैं, फिर भी ज्ञानी के उत्तर, सचोट मर्मस्थान पर और 'एक्ज़ेक्टनेस को ओपन' करनेवाले निकलते हैं, जो ज्ञानी के संपूर्ण निरावरण हो चुके दर्शन की प्रतीति करवाते हैं। उनके ही शब्दों में कहें तो 'मैं केवळज्ञान में ऐसे देखकर जवाब देता हूँ' और फिर वाणी का भी मालिकीभाव नहीं है । 'टेपरिकार्ड' बोल रहा है। ‘खुद' बोलेंगे तो भूलवाला निकलेगा, 'टेपरिकार्ड' में भूल कहाँ से होगी? 'खुद' तो 'टेपरिकार्ड' के ज्ञाता - दृष्टा रहते हैं ।
जिज्ञासु - मुमुक्षु को आत्मप्राप्ति के लिए, आत्मासंबंधी, विश्वसंबंधी उठनेवाली सैंकड़ों प्रश्नोत्तरी को प्रस्तुत ग्रंथ में संकलित किया गया है, जो सुज्ञ-आत्मार्थी को खुद की ही भाषा में बात की, 'वस्तु' की स्पष्टता करवाते हैं। परन्तु 'वस्तु' (आत्मा) को तथारूप दृष्टि में लाने के लिए, अनुभव करने के लिए तो प्रत्यक्ष - प्रकट स्वरूप से बिराजे हुए ज्ञानी श्री दादाश्री के पास से ही प्राप्ति हो सकती है ऐसा है ।
बाकी, आत्माज्ञान या केवळज्ञान की अत्यंत गहन बातें निज आत्मप्रकाश की एक भी किरण को प्रकट करने में निष्फलता में परिणामित होती है। जब तक प्रत्यक्ष 'ज्ञानी' का सुयोग नहीं मिलता, 'ज्ञानी' का ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक शब्दात्मा में रमणता रहती है और जहाँ पर प्रत्यक्ष 'ज्ञानी' का एक ही शब्द हृदय बींधकर सरलता से उतर जाता है, वहाँ पर अनंत दोषों के आवरण हटने पर समस्त ब्रह्मांड को प्रकाशमान करनेवाले परमात्मा खुद के अंदर ही प्रकट होते हैं ! इन अनुपम 'ज्ञानी' की बेजोड़ सिद्धि को जिसने जाना है, उसीने आनंद पाया है! वर्ना अवर्णनीय आत्मप्रकाश को शब्द किस तरह प्रकाशित कर पाएँगे?
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