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आप्तवाणी-७
है । वह बात सही है न? तो इसमें फिर बीच में ईश्वर की ज़रूरत ही क्या है?
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जहाँ चिंता, वहाँ पर अनुभूति कहाँ से?
प्रश्नकर्ता : चिंता से पर होने के लिए भगवान के आशीर्वाद माँगते हैं कि 'मैं इसमें से कब छूटूंगा, ' इसलिए ' भगवान - भगवान' करते हैं। उस माध्यम से हम लोग आगे बढ़ना चाहते हैं । फिर भी अभी तक मुझे मेरे भीतरवाले भगवान की अनुभूति नहीं हो पाती।
दादाश्री : अनुभूति कैसे होगी ? चिंता में अनुभूति होगी ही नहीं न! चिंता और अनुभूति, दोनों साथ में नहीं हो सकते। चिंता बंद होगी, तब अनुभूति होगी ।
प्रश्नकर्ता : चिंता किस तरह मिटेगी?
दादाश्री : यहाँ सत्संग में रहने से। कभी सत्संग में आए
हो?
प्रश्नकर्ता: दूसरी जगह सत्संग में जाता हूँ, लेकिन यहाँ तो एक-दो बार ही आया हूँ ।
दादाश्री : जिस सत्संग में जाने से चिंता बंद नहीं होती तो वह सत्संग छोड़ देना चाहिए। बाकी, सत्संग में चिंता बंद होनी ही चाहिए ।
प्रश्नकर्ता : जितनी देर वहाँ बैठे रहते हैं, उतनी देर शांति रहती है
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दादाश्री : नहीं, उसे कहीं शांति नहीं कहते। उसमें शांति नहीं है। ऐसी शांति तो... हम गप्प सुनें तब भी शांति रहेगी। सच्ची शांति तो निरंतर रहनी चाहिए, जानी ही नहीं चाहिए। अतः जहाँ चिंता हो, उस प्रकार के सत्संग में जाएँ ही क्यों? सत्संगवालों