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लक्ष्मी की चिंतना (२)
में भी नहीं आए। फिर भी वह आती रहती थी, वह पुण्यानुबंधी पुण्य। उनके पास लक्ष्मी तो ढेर सारी आती थी, आने में कमी नहीं रहती थी। कभी सोचते तक नहीं थे, बल्कि ऊब जाते थे कि अब ज़रा कम आए तो अच्छा। लेकिन फिर भी लक्ष्मी आती थी। ऐसी लक्ष्मी आए तब क्या करना पड़ता था? उसका निबेड़ा तो लाना पड़ता था न? अब निबेड़ा लाने में बहुत मेहनत हो जाती थी। उसे क्या रास्ते पर थोड़ा फेंक देते ? अब वह निबेड़ा कैसा होता था कि उससे लक्ष्मी जाती थी और फिर से बारबार उगकर वापस आती थी।
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बात को समझना तो पड़ेगा न !
अभी जो है, वह तो लक्ष्मी ही नहीं कहलाती। यह तो पापानुबंधी पुण्यवाली लक्ष्मी है। तो पुण्य ऐसे बाँधे थे कि अज्ञान तप किए थे, उससे पुण्य बंध गया था। उसके फलस्वरूप लक्ष्मी आई। यह लक्ष्मी मनुष्य को पागल बना देती है। इसे सुख कहेंगे ही कैसे ? सुख तो, पैसों का विचार नहीं आए, वह सुख है। हमें तो वर्ष में एकाध दिन विचार आता है कि जेब में पैसे हैं या नहीं?
प्रश्नकर्ता : बोझ जैसा लगता है ?
दादाश्री : नहीं, बोझा तो हमें नहीं होता, लेकिन हमें वैसा विचार ही नहीं आता न ! क्यों सोचें ? सब आगे-पीछे तैयार ही होता है! जैसे खाने-पीने का आपके टेबल पर आता है या नहीं आता? या फिर सुबह से उसके लिए सोचकर बैठे रहते हो? माला फेरते रहते हो कि 'खाना बनेगा या नहीं बनेगा ? खाने को मिलेगा या नहीं मिलेगा?' क्या ऐसा करते रहते हो? क्या खाने के लिए जाप नहीं करना पड़ता ? या सुबह उठते ही जाप करते हो?
प्रश्नकर्ता : किसी को जाप होता भी होगा।