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आप्तवाणी-७
जागा तभी से यही का यही, 'चाय केतली में क्यों नहीं लाए?' चाय कडक नहीं बनी! अरे, सीधा रहकर पी ले न चुपचाप, कडक
और अच्छी कहे बिना! लेकिन कितनी तरह की कमियाँ निकालता रहता है। तब फिर पत्नी चिढ़ ही जाएगी न कि इन्हें आदत ही बुरी पड़ी हुई है, लेकिन मन में समझ जाती है, बोल नहीं पाती। मन में कहेगी कि, 'यह मूलतः टेढ़ा ही है। शादी करने आया तभी से टेढ़ा है।' ऐसा सब समझती है। लेकिन मुँह पर किस तरह बोले? लेकिन फिर वह सीमा में न रहे तो बहू लाज में नहीं रहती। इसीलिए एक दिन पत्नी सामने बोलती है। सुबह उठते ही कलह करती है न? असल खाने-पीने की चीजें हैं। किसी काल में नहीं थीं ऐसी चीजें मिल रही हैं, तब इन लोगों को भोगना नहीं आता। सारी समझ ही टूट गई है। 'जीवन किस तरह जीएँ?' उसका किसी प्रकार का भान ही नहीं है।
नहीं रहा लेकिन फिर न समझती है।