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आप्तवाणी-७
दादाश्री : लेकिन पसंद तो है न? जोखिम तो ऐसा है न कि यह सब जोखिम ही है। लेकिन पसंद है न? मीठा लगता है न? वास्तव में सभी जंजालें पसंद नहीं हैं, लेकिन यहाँ पर रहने जितना उसे थोड़ा-बहुत पसंदीदा चाहिए कि यहाँ पर बैलूं या वहाँ पर बैठू? यानी जहाँ पर पसंद आए वहाँ पर बैठता है, उस जैसा है! इस जंजाल में से कभी छूटने की इच्छा होती है क्या? जंजाल पसंद ही नहीं है न? यह तो जंजाल में घुसे हुए हैं! जब तक नहीं छूट पाएँ, तब तक यह सब खाना-पीना, जैसा सब लोग करते हैं वैसा करते रहना है। लेकिन यदि छूटने को मिल जाए, 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो छूट जाएगा। इस जंजाल में से छूट जाए तो परमानंद! मुक्ति!
मनुष्यों को ये क्रोध-मान-माया-लोभ एक क्षणभर भी चैन से नहीं बैठने देते। निरंतर छटपटाहट, छटपटाहट, छटपटाहट! ऐसा आपने देखा है? यह मछली तड़फड़ाती है न? जैसे पानी से बाहर निकालने पर मछली तड़फड़ाती है, वैसे ही ये मनुष्य बिना बाहर निकाले ही तड़फते हैं। घर में हों तब भी तड़फाड़ती, ऑफिस में जाए तब भी तड़फाड़ती, पूरे दिन तड़फड़ाहट! अब यह तड़फड़ाहट मिट जाए तो कितना आनंद रहे? देखो, हमें तड़फड़ाहट मिट गई है तो कैसी-कैसी बातें निकलती हैं न? पूरे जगत् को तड़फड़ाहट, तड़फड़ाहट और तड़फड़ाहट ही रहनेवाली है। इन्हें तो, यदि अच्छा भोजन हो, फिर भी खाते समय भीतर तड़फड़ाहट बंद नहीं होती। बोलो, किस तरह जी पाते हैं यह भी आश्चर्य है न?
जीवन जीना सीखो बड़े फ्लेटवाले के वहाँ पर बाथरूम और संडास रूम जितने बड़े होते हैं और भगवान का झरोखा तो इतना सा ही होता है। मंदिर जितने बड़े तो संडास बनाए! संडास में किसके दर्शन करने हैं? यह तो अपने को भी शरम आए! एक सेठ ने मुझे कहा कि देखो भगवान के लिए यह झरोखा है। फिर बाथरूम दिखाया