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२१. कला, जान-बूझकर ठगे जाने की 'ज्ञानीपुरुष' ने जीवन में एक सूत्र संपूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया होता है, 'जान-बूझकर ठगे जाना।' कैसी विशेषता! ठगने वाले की मेहनत बेकार नहीं जाए, ज्ञानी उसका ख्याल रखते हैं। और फिर ठगनेवाले के साथ कषाय हों उसके बजाय ठगे जाने पर कषाय में से मुक्ति का मार्ग उन्होंने ढूँढ निकाला! जो जान-बूझकर ठगे जाते हैं, वे मोक्ष में जाते हैं। ब्रेन ऐसा टॉप तक डेवेलप होता है कि सुप्रीम कोर्ट के जज को भी मात दे। अनजाने में तो पूरी दुनिया धोखा खा ही रही है न? 'धोखा नहीं खानेवाले' तो किसी को भी मिल जाएँगे, लेकिन 'जान-बूझकर धोखा खाए' ऐसे कहाँ से मिलेंगे?
ज्ञानीपुरुष ने इस जगत् को कैसे स्वरूप में देखा होगा? कोई पैसा हड़प जाए, वह भी करेक्ट ही है। आप साफ हो, तो कोई आपका नाम भी नहीं देगा, ऐसा है यह जगत्।' कहीं भी घबराने जैसा नहीं है। फिर भी 'मेरा नाम कौन देगा?' ऐसा चेलेन्ज देने जैसा नहीं है। जगत् पूर्ण रूप से न्यायस्वरूप है। 'ज्ञानीपुरुष' वह हिसाब निकालकर बैठे होते
सरकार के कानून को तोड़कर अपने रुपये कोई हड़प ले जाए, लेकिन नेचर के कानून किसी से कैसे तोड़े जा सकते हैं? नेचर का कानून तो, उस रकम को ब्याज के साथ चुकवाएगा। एक-एक परमाणु का हिसाब जहाँ पर करेक्ट है, वहाँ पर घबराना कैसा! हम यदि करेक्ट हैं तो लुटेरों के गाँव में से लुटे बिना आरपार निकल पाएँगे, नहीं तो जहाँ पर हिसाब है, वहाँ पर लाख प्रोटेक्शन के बावजूद भी लुट जाएँगे!
कर्जदार के विवेक के उपदेश बहुत सुने हैं, लेकिन वसूलनेवाले को भी उतना ही विवेक रखना है, ऐसा 'इन' ज्ञानी ने ही कहा! पैसों की क़ीमत की बजाय यह अधिक महत्वपूर्ण है कि मन कमज़ोर नहीं पड़ जाए। वसूलनेवाले को एक सुंदर चाबी देते हैं। किसी को पैसा देते समय
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