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पाप-पुण्य की परिभाषा (११)
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पुण्य का है। वह निरे पाप ही बँधवाएगा! इसके बजाय उस लक्ष्मी से कहना कि, 'तू आना ही मत, उतनी दूरी पर ही रहना। उससे हमारी शोभा रहेगी और तेरी भी शोभा बढ़ेगी।' ये जो बंगले बनते हैं, उन सब में साफ तौर पर पापानुबंधी पुण्य दिखता है। इसमें यहाँ शायद ही कोई होगा, हज़ारों में एकाध व्यक्ति, कि जिसका पुण्यानुबंधी पुण्य होगा। बाकी ये सभी पापानुबंधी पुण्य हैं। इतनी लक्ष्मी तो होती होगी कभी भी? निरे पाप ही बाँध रहे हैं, कुछ भोगते-करते नहीं हैं और पाप ही बाँध रहे हैं। ये तो तिर्यंच की रिटर्न टिकट लेकर आए हुए हैं!
एक मिनट भी नहीं रहा जा सके, ऐसा है यह संसार! ज़बरदस्त पुण्य होते हुए भी भीतर दाह कम नहीं होता। अंतरदाह निरंतर जलता ही रहता है! चारों ओर से सभी फर्स्ट क्लास संयोग हों फिर भी अंतरदाह चलता ही रहता है, अब वह मिटे कैसे? पुण्य भी अंत में खत्म हो जाते हैं। दुनिया का नियम है कि पुण्य खत्म हो जाते हैं। तब क्या होता है? पाप का उदय होता है। यह तो अंतरदाह है। पाप के उदय के समय जब बाहरी दाह उत्पन्न होगा, उस घड़ी तेरी क्या दशा होगी? इसलिए भगवान ऐसा कहते हैं कि 'सावधान हो जा।'
पाप-पुण्य की यथार्थ समझ प्रश्नकर्ता : पाप और पुण्य, वे भला क्या हैं?
दादाश्री : ऐसा है, इस दुनिया को चलानेवाला कोई नहीं है। यदि कोई चलानेवाला होता तो पाप-पुण्य की कोई ज़रूरत नहीं थी। पाप और पुण्य का अर्थ क्या है? क्या करेंगे तो पुण्य मिलेगा? इस जगत् के लोग, हर एक जीव, वे भगवान स्वरूप ही हैं। ये पेड़ हैं, उनमें भी जीव है। अब लोग ऐसा भी कहते ज़रूर हैं लेकिन वास्तव में वैसा उनकी श्रद्धा में नहीं है। इसलिए पेड़ को काटते हैं, तोड़ते हैं, सभी कुछ करते हैं। उन्हें यों ही